चीन और अमेरिका के रिश्ते कब हुए बेहाल और कब हुए बहाल, कब ख़ुशी कब गम, कहाँ शुरू कहाँ खत्म, पढ़े कहानी..

7 अगस्त, 2020(रिसर्च असिस्टेंस- शैलेंदर, डिस्ट्रिक्ट- मोरेना, राज्य- मध्य प्रदेश, स्टोरी एडिटिंग- अमित), हिंदी पढ़ने वाले हिंदुस्तान और अन्य देशो में रहते लोगो तक इस कहानी को पहुंचाने का मकसद सिर्फ इतना है की सबको ये ज्ञात रहे ही चीन आज जिस मुकाम पे है उसके लिए कही न कही अमेरिका भी उतना ही जिम्मेदार है जितना की कभी सोवियत संघ हुआ करता था अगर अमेरिका ने चीन की हरकतों पे आंख न मूंदी होती तो चीन आज 2020 में इतना बेलगाम न होता और आज पूरी दुनिया को लाल आंखे न दिखा रहा होता, इस पूरी कहानी में आपको पढंने को मिलेगा की कैसे अमेरिका की वजह से चीन इतना ताकतवर हो गया जो आज अमेरिका के व्यापार को ही हड़प जाना चाहता है और आज अमेरिका चीन के सामने बौना साबित हो रहा और दुनिया के अन्य देशो को इकठा कर चीन के खिलाफ अलग अलग मोर्चे खोलता फिर रहा है

कब शुरू हुए अमेरिका और चीन के बीच रिश्ते– चीन और अमेरिका के बीच रिश्तों की शुरुआत 1970 में तब हुई जब पाकिस्तान ने इसके लिए एक बिचौलिए की भूमिका निभाई, जानकार मानते है की पाकिस्तान चाहता था की चीन-पाकिस्तान-अमेरिका की एक तिकड़ी बने जिससे भारत और सोवियत संघ की शक्ति को चुनौती दी जा सके। पाकिस्तान की दलाली की भूमिका की वजह से अमेरिका चीन के जो रिश्ते बने इसे ‘पिंग-पॉन्ग डिप्लोमेसी’ भी कहा जाता है। इसमें अमेरिका की टेबल-टेनिस टीम चीन गई थी। इसके बाद 1972 में अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन चीन की आठ दिनों की यात्रा पर गए। इसके सात साल बाद दोनों देशों के बीच पूरी तरह से कूटनीतिक संबंध स्थापित हो गए। अमेरिकी डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने 636 बिलियन अमेरिकी डॉलर का व्यापारिक समझौता चीन के साथ किया। यह समझौता पूरी तरह से चीन के पक्ष में झुका हुआ था। कुछ जानकार तो यह तक मानते है तब की अमेरिका सरकार ने चीन को गले लगाने के लिए अपने पुराने दोस्त ताइवान को दरकिनार तक कर दिया था ये तो रहा वो किस्सा जिसे आजके लोग अमेरिका चीन के रिश्तो की शुरुआत मानते है पर कुछ जानकारों का कहना है की अमेरिका चीन के रिश्ते ख़ास कर व्यापारिक रिश्ते 1970 से बहुत पहले ही स्थापित हो चुके थे जानकार कहते है की  विदेश मंत्रालय के ‘ऑफ़िस ऑफ़ द हिस्टोरियन’ के अनुसार, साल 1784 में ‘एम्प्रेस ऑफ़ चाइना’ पहला जहाज़ था जो अमेरिका से चीन के ग्वांगज़ाओ प्रांत पहुँचा था. इसी के साथ अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक संबंधों की शुरुआत हुई, जिसमें चाय पत्ती, चीनी मिट्टी और रेशम प्रमुख सामान थे 1830 में पहली बार कुछ अमेरिकी पादरी ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए चीन पहुँचे, जिन्होंने चीन के इतिहास, भाषा और संस्कृति का पहले अध्ययन किया और फिर अमेरिका  के इतिहास को चीनी भाषा में लिखा.

1835 में अमेरिका के एक डॉक्टर चीन पहुँचे और उन्होंने वहाँ एक क्लीनिक की स्थापना की, कुछ ही समय बाद चीनी श्रमिक भी अमेरिका काम की तलाश में पहुँचने लगे, जहाँ उन्हें मज़दूरी करने की पूरी आज़ादी दी गई, लेकिन इनमें खदानों में काम करने और रेल की पटरियाँ बिछाने जैसे अन्य छोटे काम करने के ही अवसर उपलब्ध थे फिर भी अगले 20 सालों में एक लाख से ज़्यादा चीनी श्रमिक अमेरिका पहुँच चुके थे अमेरिकी जनगणना ब्यूरो की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका में आज के समय में चीनी मूल के 40 लाख से ज़्यादा लोग रहते हैं.

माओत्से तुंग की नहीं बनी अमेरिका से–  अमेरिकी विदेश मंत्रालय के मुताबिक़, वर्ष 1850 से 1905 के बीच चीन और अमेरिका के संबंधों ने कई उतार-चढ़ाव देखे  इस दौरान दोनों देशों में कई व्यापारिक संधियाँ हुईं और टूटीं वर्ष 1911-12 में चीन में साम्राज्यवाद का पतन हुआ, जिसके साथ ही चीन में गणतंत्र की स्थापना हुई, 1919 में अमेरिकी राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन के कहने पर चीन ने पहले विश्व युद्ध में मित्र देशों का साथ दिया, इस के पीछे भी चीन  की एक  लालच  छिपी  थी चीन को लगा की उसे जर्मनी के व्यापार क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर मिलेगा, जो लम्बे समय से सिर्फ़ जापान के पास था.

लेकिन  चीन की यह उम्मीद ‘वर्साय की संधि’ के कारण पूरी नहीं हो पाई, क्योंकि जापान, ब्रिटेन और फ़्रांस की आपस में ही कुछ खिचड़ी पक रही थी जिस के चलते इन तीनो देशो ने आपस में ही कुछ संधियाँ कर ली थीं, जिसकी जानकारी चीन को नहीं दी गई थी चीन को ऐसा लगने लगा की ये सब अमेरिका के इशारे पे हुआ है और अमेरिका ने चीन को धोखा दिया है जिस वजह से चीन के लोगों में अमेरिका को लेकर क्रोध पैदा हो गया और 4 मई 1919 को छात्र समूहों ने चीन की राजधानी बीजिंग के थियानमेन चौक पर विशाल प्रदर्शन किया, जो उस समय का ‘सबसे बड़ा शहरी आंदोलन’ था

1921 में वामपंथी विचारधारा के समर्थको ने शंघाई में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की और 1949 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता माओत्से तुंग ने बीजिंग में ‘पीपुल रिपब्लिक ऑफ़ चाइना’ की स्थापना की उन्होंने चियांग काई-शेक के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी को हरा दिया राजनीति की इस रस्सा कसी में अमेरिका ने राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी का समर्थन किया था, जिसकी वजह से माओत्से तुंग अमेरिका को लेके गुस्से से भरा हुआ था और जब तक वो सत्ता में रहा अमेरिका से चीन का छत्तीस का आंकड़ा बना रहा

कोरियाई युद्ध और चीन की परमाणु शक्ति बनने की चाहत का अमेरिका- चीन रिश्तो पे असर– 25 जून 1950 को सोवियत संघ के समर्थन से उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया पे एका एक हमला बोल दिया, इस युद्ध में सयुंक्त राष्ट्र को साथ ले अमेरिका दक्षिण कोरिया के साथ खड़ा हो गया, वही दूसरी तरफ चीन जो सोवियत संघ का शागिर्द था ने अपने आका की हाँ में हाँ मिलाते हुए उत्तर कोरिया का साथ दिया, इस युद्ध में अमेरिका के लगभग 40 हजार सैनिक मारे गए, कुछ जानकार तो इस आंकड़े से कही ज्यादा अमेरिकी सैनिको के मारे जाने की बात कहते है वही दूसरी तरफ इस लड़ाई में चीन के अमेरिकी सैनिको से भी कही ज्यादा सैनिक मारे गए, 1953 में संयुक्त राष्ट्र संघ, चीन और उत्तर कोरिया के बीच हुए एक समझौते के तहत युद्ध पर विराम लगा, पर दोनों देशो के मन में एक दुसरे के लिए काफी गुस्सा था जिस वजह से दोनों देशो के रिश्ते ख़राब होते ही गए, इस काम में चीन और अमेरिका की सरकारों की अलग अलग विचारधारा ने आग में घी का काम किया(चीन में साम्यवाद था तो अमेरिका में लोकतंत्र था)

1954 में अमेरिका और चीन एक बार फिर ताइवान के मुद्दे पर आपने-सामने हुए और अमेरिका ने ताइवान की रक्षा के लिए चीन पर  परमाणु हमले की तैयारी कर ली थी, जिसकी चीन को जल्दी ही भनक लग गई , जिसके बाद चीन को समझौता करने पर मजबूर होना पड़ा, पर इस बात को लेके चीन अपने आप को असुरक्षित महसूस करने लगा जिस वजह से 1964 में चीन ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया इसे लेकर भी अमेरिका और चीन के बीच विवाद खड़े हो गए और दोनों देशो के बीच रिश्ते ख़राब होते चले गए

लेकिन कुछ सालों के बाद चीन की नजर सोवियत संघ की कुछ जमीन पे ख़राब हो गई जिस वजह से चीन के गीदड़ सैनिको ने एक दिन छुप के सोवियत सैनिको पे हमला बोल दिया जिसमे सोवियत के निश्चिंत बैठे 35 जवान पलक झपकते ही दुनिया से विदा हो गए, सोवियत के इन सैनिको की शहादत से सोवियत ने चीन पे परमाणु हमला करने की ठान ली अब चीन को अपना आका सोवियत अमेरिका से बड़ा खतरा लगने लगा जिससे बचने के लिए डरपोक चीन ने अमेरिका के आगे घुटने टेक दिए, यहां से एक बार फिर अमेरिका चीन रिश्ते ठीक हुए

चीन अमेरिका के रिश्तो में जमी बर्फ एक बार फिर पिघलने वाली थी– 1972 में अमेरिका  के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ एक बार फिर से दोस्ती का हाथ बढ़ाया, वे चीन पहुँचे और वहाँ आठ दिन बिताए, इस बीच उन्होंने  ‘शंघाई कम्युनिक ‘ पर हस्ताक्षर किए जिसे चीन और अमेरिका के ‘सुधरते रिश्ते का प्रतीक’ माना गया.

दरअसल अमेरिका चाहता था की उसे किसी तरह अगर साम्यवादी विचारधारा में कोई छेद करना है तो चीन को अपने पाले में लेना जरुरी है जिससे सोवियत संघ को चुनौती देना आसान हो जाएगा, चीन तो शुरू से चालबाज़ था उसने सोवियत संघ की मार से बचने के लिए अमेरिका से तुरंत हाथ मिला लिया

चीन के साथ सम्बन्ध सुधारने की दिशा में अमेरिका  ने 1980 के दशक में कुछ क़दम उठाए तब तक माओत्से तुंग की मौत के बाद डेंग ज़ियाओपिंग चीन के नेता बन चुके थे डेंग ज़ियाओपिंग ने चीन की रुकी हुई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए  अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के लिए चीन के दरवाज़े खोले इस वजह से 1985 आते-आते कई बड़ी जापानी और अमेरिकी कंपनियों ने चीन में कदम रखने शुरू किए, चीन से नजदीकियां बढ़ते देख अमेरिका  ने ताइवान के मुद्दे से अपने हाथ खींच लिए और चीन को आश्वासन दिया कि वो ताइवान की तरफ़ से मध्यस्थता की कोशिश नहीं करेगा, दोस्तों याद रखिए की ये वही अमेरिका था जिसने 1954 में ताइवान के मुद्दे पर ही चीन पर परमाणु हमले की धमकी दी थी ये बात दुनिया के सामने अमेरिका के मतलबी चेहरे को बेनकाब करती है और साथ ही ये एक झलक थी उस बदलते मौसम की जिसने आने वाले समय में चीन के लिए सुहावना भविष्य तैयार किया

थियानमेन चौक नरसंघार ने एक बार फिर से हालात ख़राब किए– सब कुछ अच्छा चल रहा था और अमेरिका और चीन के नेता एक दुसरे के प्यार में डूबे हुए थे पर तभी 1989 में थियानमेन चौक पे चीन की लाल सेना ने पूरे थियानमेन चौक को शांत प्रदर्शन कर रहे छात्रों के खून से लाल कर दिया इस घटना की खबर सुनते ही अमेरिका सहित पूरी दुनिया लाल पीली हो गई, अमेरिका ने चीन के साथ अपने रिश्तों में कुछ रोक लगा दी और चीन को दिए जाने वाले सभी युद्धक सामग्रियों को चीन भेजना बंद कर दिया

1990 के दशक में चीन ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि सुधारने का ढोंग रच फिर से दुनिया को गुमराह करने में कामयाबी हासिल की , चीनी सरकार ने न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफ़रेशन संधि (NPT) पर हस्ताक्षर किए और APEC की सदस्यता लेने के लिए चीन, ताइवान और हॉन्ग-कॉन्ग को अलग-अलग अर्थव्यवस्था के रूप में स्वीकार किया.

साल 2000 आते, अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने चीन से एक बार फिर से व्यापार शुरू करने के लिए पहल की उन्हें लगता था की चीन एक मध्य वर्गी बाहुल्य देश है  जहाँ आने वाले समय में लोकतंत्र जरूर जन्म लेगा और सब कुछ उनके मुताबिक होगा उनकी इस आशा की जल्दी ही मौत होने वाली थी क्यों की आने वाले समय में भी चीन में कुछ नहीं बदलने वाला था

साल दर साल बेकाबू होता गया ड्रैगन(चीन)– अमेरिका  अब चीन को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मान रहा है जिसकी कई वजहें हैं अमेरिका और चीन के बीच निक्सन से बिल क्लिंटन के दौर में ‘कोऑपरेशन’ पर आधारित रिश्ते थे, जो ओबामा का समय आते-आते ‘कंपीटिशन’ में बदले, लेकिन अब यह  ‘कन्फ़्रंटेशन’ में बदल रहे है.

साल 2006 में चीन अमेरिका  का ‘दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार’ बन चुका था, जिसकी वजह से दोनों देश एक दुसरे पे निर्भर होने लगे, फिर साल 2010 में चीन, जापान को पीछे छोड़कर दुनिया की ‘दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था’ बना गया और एक अनुमान के हिसाब से ‘2027 तक चीन अमरीका को पीछे छोड़कर, दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभर जाएगा, अगर अमेरिका साल 2001 में चीन को विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता लेने में मदद नहीं करता तो यकीनन आज चीन जिस मुकाम पे है वह नहीं होता आज एहि बात अमेरिका की जनता के साथ ट्रम्प और पूरी दुनिया को पछताने पे मजबूर कर रही है

क्या अब कुछ कर भी सकता है अमेरिका??– अमेरिका  के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस बात को समझ चुके हैं कि अगर चीन की ताक़त को कम करना है तो चीन की व्यापारिक शक्ति पर हमला किया जाना बेहद जरूरी है और ट्रंप इसी पर लगे हुए हैं इसी मक़सद से चीन पर कुछ प्रतिबंध और अतिरिक्त व्यापारिक शुल्क लगाए गए, मोबाइल ऐप बैन किए जा रहे हैं और अपने प्रभाव वाले देशों से भी अमेरिका एहि सब करवा रहा है लेकिन अमेरिका  चीन से लड़ना नहीं चाहता, क्योंकि चीन के पास बहुत सारे परमाणु शस्त्र हैं.

डर चीन को भी है क्योंकि उसे ख़तरा अपने व्यापार का है यही वजह है कि बेल्ट एंड रोड जैसी परियोजना से चीन अपने लिए व्यापार करने के वैकल्पिक रस्ते बना रहा  है ताकि अमेरिका उसके समुद्री रास्ते बंद कर भी दे तो भी व्यापार पर फ़र्क ना पड़े

फिलहाल के हाल बेहाल– आजकल की मीडिया रिपोर्ट्स को आधार माना जाए तो अमेरिका ने भारत की देखा देखि में कुछ चीनी एप्प्स को बंद करने का एलान कर दिया  है, जासूसी का डर जब अमेरिका को सताने लगा तो चीन के एक दूतावास को बंद कर दिया, ये सोच के आपको चिंता होने लगेगी की अगर ये दूतावास जासूसी का अड्डा था तो सालों FBI और सीआईए क्या भुट्टे भूनने में व्यस्त थे जो किसी को कोई भनक तक नहीं लगी,  और ज्यादा  चिंता हुई तो ट्रम्प जी ने चीन सागर में बम बारूद भेज दिए, अब पूरी दुनिया को चिंता सता रही  है की कही अमेरिका और चीन में युद्ध न हो जाए, चलिए कहानी तो बस इतनी ही है उम्मीद है आपका ज्ञान बढ़ाएगी, अमेरिका की अकाल और भारत का आत्मविश्वास और हो सकता है एक चीज़ कम भी करदे वो है भारत में रहते चीन के चमचो की हेकड़ी…

 

sources- www.bbc.com, www.navbharattimes.indiatimes.com, www.patrika.com

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