कब, क्यों और कैसे लगा Indian economy को धक्का? वो क्या तरीके है जिसे अपना कर भारत economy के छेत्र में china को पिछाड़ सकता है? क्यों है agriculture भारत की economy के लिए सबसे जरुरी छेत्र? पढ़िए पूरा आर्टिकल...

जालंधर(31/10/2022): AD 1700 में विश्व की इकॉनमी(world economy) में भारत का हिस्सा लगभग 25% था, और कुछ इतना ही पूरे यूरोप का हिस्सा था, लगभग 50% तक भारत की इकॉनमी(Indian economy) इस्लामिक हमलावरों के आने तक और ज्यादा थी, साल 1952 आते आते भारत की इकॉनमी लगभग 4% तक नीचे आगई, उस समय तक भी भारत कॉग्निटिव साइंस के छेत्र में वर्ल्ड लीडर था, उधारण के लिए अलजेब्रा, ज्योमेट्री, कैलकुलस, फिजिक्स, केमिस्ट्री, मेटालर्जी प्रमुख हैं

Indian economy before british rule: हालात साल 1815 तक खराब होने शुरू हुए, जिसके दो प्रमुख कारण थे, पहला की मराठा सेना जिसका नेतृत्व  पेशवा बाजी राव-2 कर रहे थे ब्रिटिश इम्पेरिअलिस्ट्स के हांथों हार गई, दूसरा कारण था की ब्रिटिश इम्पेरिअलिस्ट ने साइंस आधारित इन्नोवेशंस जिसमे लोकोमोटिव्स और बेसेमेर स्टील ब्लास्ट फर्नेंस प्रमुख हैं जिसे ब्रिटेन में आई इंडस्ट्रियल रेवोलुशन का इंजन माना जाता था को रोक देना था

During british period Indian economy: अंग्रेजों ने अपने कुछ नजदीकी लोगो को जमींदार का नाम देकर किसानो से टैक्स वसूलने की शक्ति दे रखी थी, ये लोग किसान से मोटी रकम टैक्स के तौर पर वसूलते थे और आगे ब्रिटिश सरकार को एक फिक्स राशि ही देते थे बाकी का बचा हुआ डिफरेंस इन जमीदारों की जेब में जाया करता था, इसके इलावा इन जमीदारो को शक्ति मिली हुई थी की अगर कोई किसान अपना कुछ कर्ज सरकार को नहीं दे सका हो और मर जाए तो ये लोग मरने वाले का कर्ज उसके पडोसी से भी वसूल कर सकते थे, अब आते हैं मनी लेंडर की तरफ ये वो लोग थे जो अपने स्तर पर किसानो को लोन दिया करते थे इस लोन की राशि से किसान सरकार का टैक्स का पैसा चुकाया करता था, ब्रिटिश सरकार ने लैंड सर्वे कभी ही करवया होगा जिससे ये पता चल सकता था की किस छेत्र में कौन सी फसल कितनी हो सकती है, इन सभी बातों की वजह से साल 1865 से 1900 के बीच लैंड रेवेनुए 25% तक बढ़ा तो एहि आंकड़ा साल 1900 से 1947 के बीच 21% तक रहा था, ध्यान रखिए वहीं कृषि पैदावार इस दोनों पीरियड में घटती ही चली गई थी, ये मनी लेंडर्स आगे चलकर जमीन के असली मालिक बनते गए, पहले तो इन्होने किसान को कर्ज देकर दबा लिया फिर आगे और नए कर्ज लेने पर भी मजबूर किया, लगभग 40% तक जमीन किसान के हाथ से इन मनी लेंडर्स के हाथ में चली गई थी, अब जो लोग इस आर्टिकल को पढ़ रहे हैं खुद ही राय बनाइए की अंग्रेजों ने गरीब किसानो को लूटा या फिर इन जमींदारों और मनी लेंडर्स ने???..

जापान के शाशक मेइजी के समय में भारत से भी ज्यादा कृषि टैक्स का चलन था पर जापान में टैक्स से लिया गया पैसा कृषि से जुडी रिसर्च, कृषि कॉलेजेस पर खर्च होता था ताकि कृषि को और उन्नत बनाया जा सके पर भारत में ब्रिटिश सरकार को कृषि उन्नति में कोई रूचि नहीं थी

अब थोड़ा बात कर लेते भारत और चीन की तुलना पर, बस एक ही फर्क है की चीन कभी भी एडमिनिस्ट्रेशन स्तर पर गुलाम नहीं रहा था, पर भारत पर ईस्ट इंडिया कंपनी का पूर्ण राज था और भारत में एडमिनिस्ट्रेशन स्तर के अधिकारी ब्रिटेन से भेजे जाते थे जिनकी भारत की तर्रकी में कोई रूचि नहीं थी, इस लिए वो भारत में जो भी नियम बनाते वो भारत के पक्ष में कम और सिर्फ उतने जरुरी होते थे की ब्रिटिश सरकार का काम चल सके बस, इससे ज्यादा ब्रिटिश अफसर इस तरफ मेहनत नहीं करते थे जिस वजह से भारत की कृषि चीन की कृषि से आगे नहीं निकल सकी

एक बात हम सभी को याद रखनी होगी की पंजाब के गेहू उगाने वाले किसानो को बहुत सख्त कृषि टैक्स का सामना नहीं करना पड़ा था ऐसा इस लिए था क्योकि पंजाब ने साल 1846  में लाहौर की संधि पर हस्ताक्षर किए थे, इस संधि की वजह से ही कुछ पंजाब के सैनिको को तब ब्रिटिश सरकार का साथ देने के लिए भेजा गया जब 1857  की क्रांति का जन्म हुआ

सख्त कृषि टैक्स न होने की वजह से पंजाब राज्य बीसहवी सदी के मध्य तक देश के अन्य राज्यों से कृषि उन्नति के मामले में काफी आगे निकल गया था, भारत के कई क्रांतिकारियों और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने ब्रिटिश सरकार से ऐसी रियायतें  अन्य राज्यों को भी देने के लिए कई बार बात की पर कभी किसी अन्य राज्य को ऐसी रियायतें नहीं मिल सकी

साल 1950  में जब भारत और चीन दोनों ने इकनोमिक प्लानिंग के जरिए तरक्की के नए रस्ते को चुना तो दोनों में एक बड़ा अंतर् था की चीन के पास एक बड़ा फ़ूड सरप्लस मौजूद था जिस वजह से उसे किसी इमरजेंसी में फ़ूड पर खर्च करने के लिए बड़ी राशि को इकठा करके रखने की जरुरत नहीं थी जिस वजह से चीन ने निश्चिन्त होकर एक बड़ी राशि इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट में झोंक दी, भारत इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट के लिए चीन जितना निवेश नहीं कर सका

इसके इलावा भारत सरकार ने सोवियत यूनियन के मॉडल्स को बिना सोचे समझे देश की इकनोमिक प्लानिंग(economic palnning) पर थोप दिया वही साल 1960  में देश में बारिश की भारी कमी हो गई जिस वजह से भी भारत सरकार को इंडस्ट्रियल   डेवलपमेंट पर खर्च करने की वजह कृष छेत्र को बचाने के लिए इमरजेंसी स्तर पर खर्च करना पड़ा जिस वजह से भी भारत इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट के मामले में चीन से आगे नहीं निकल सका

अंग्रेज सरकार द्वारा बिछाए गए रेलवे जाल का बदकिस्मती से अच्छा असर पड़ने के उलट भारत के उद्योग पर बुरा असर  पड़ा, रेलवे की वजह से भारत में टेक्सटाइल्स आसानी से इम्पोर्ट होने लगा जिस वजह से भारत का टेक्सटाइल उद्योग जो हाथों से बुना जाता था पूरी तरह से तवाह हो गया और हजारों लोग बेकार हो गए

मकौले ने ब्रिटिश पार्लियामेंट में दिए अपने भाषण में कहा की ब्रिटिश लाइब्रेरी की एक शेल्फ एक पूरे संस्कृत लिटरेचर से बेहतर है, इस वजह से ही भारत भर में संस्कृत पढ़ाने वाले गुरुकुल पर पाबन्दी लगा दी गई थी और इंग्लिश पढ़ाए जाने वाले स्कूल शुरू किए गए और ब्रिटिश एटिकेट को बढ़ावा दिया गया,

साल 1947  में जब भारत का बटवारा हुआ तो लाखों लोग पाकिस्तान से भारत आगए अब भारत सरकार पर इन लोगो के लिए खाने और रहने के लिए घर देने की बड़ी जिम्मेदारी आगई, वही दूसरी तरफ वेस्ट पंजाब, सिंध और आसाम का सीलहेत डिस्ट्रिक्ट जो सरप्लस स्तर पर गेहू उगाते थे नए बने पाकिस्तान में चले गए इससे भारत के सामने अनाज की कमी और बड़ी हो गई, इसके इलावा भारत के कुछ ऐसे इलाके जो जूट और कॉटन बड़ी मात्रा में पैदा करते थे वो सब पाकिस्तान में चले गए पर इनसे जुडी फैक्ट्रीज भारत में ही रह गई जिस वजह से भी भारत की टेक्सटाइल इंडस्ट्री को बड़ा धक्का लगा

Indian economy after independence: अब थोड़ा बात 12  पांच वर्षीय प्लान्स पर की जाएगी यह प्लान्स साल 1951  से लेकर साल 2013  तक चले थे, जिनमेंसे आखिरी को साल 2012  में मनमोहन सिंह की सरकार ने हरी झंडी दी थी पर इसे साल 2014  में मोदी सरकार ने 3 साल के एक्शन एजेंडा में बदल दिया, इसके साथ ही पांच वर्षीय योजना का चलन खत्म हो गया

अगर डाटा पर नजर मारी जाए तो यह बात सामने आएगी की जिन देशो ने सोवियत इकनोमिक मॉडल्स को अपनाया उनकी परफॉरमेंस उन देशो के मुकाबले कमजोर रही जिन्होंने अन्य इकनोमिक मॉडल्स अपनाया, इस मामले में दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया की तुलना और ईस्ट और वेस्ट जर्मनी की तुलना बहुत अच्छी रहेगी, अब जो तुलनात्मक आंकड़ा हम देने जा रहे है वो दक्षिण और उत्तर कोरिया के मामले में साल 1995 -1996  का और ईस्ट और वेस्ट जर्मनी के मामले में साल 1989 का है

इस दौर में दक्षिण कोरिया की कुल आबादी 44.9  मिलियन थी तो वहीं उत्तर कोरिया की कुल आबादी थी 23.9 मिलियन, जीएनपी की बात की जाए तो दक्षिण कोरिया की थी 451.7 बिलियन डॉलर तो उत्तर की थी 22.3 बिलियन डॉलर,  अब बात पर कैपिटा इनकम की की जाए तो दक्षिण कोरिया की 10,067  डॉलर थी तो वही उत्तर कोरिया की 957  डॉलर थी, साल 1990 -1995  के बीच इकोनॉमिक ग्रोथ की बात की जाए तो दक्षिण कोरिया की +7.6% थी तो वहीँ उत्तर कोरिया की -4.5% थी, अब सरकारी एक्सपेंडिचर भी देख ली जिए, इसी एक दौर में जहाँ दक्षिण कोरिया का गवर्नमेंट एक्सपेंडिचर था 97.1 बिलियन डॉलर तो उत्तर कोरिया का था 19 बिलियन डॉलर, अब आते हैं डिफेन्स एक्सपेंडिचर की तरफ, इस एक दौर में जहाँ दक्षिण कोरिया का डिफेन्स एक्सपेंडिचर था 14.4 बिलियन डॉलर तो उत्तर कोरिया का था 5.2 बिलियन डॉलर, जहाँ दक्षिण कोरिया के मामले में डिफेन्स एक्सपेंडिचर कुल जीडीपी का  3.2% था तो वही उत्तर कोरिया के मामले में ये आंकड़ा था 23 %, दक्षिण कोरिया का विदेशी कुल व्यापार था 260.2 बिलियन डॉलर तो वहीँ उत्तर कोरिया का था 2.05 बिलियन डॉलर, गुड्स एक्सपोर्ट के मामले में दक्षिण कोरिया का आंकड़ा था 125.1 बिलियन डॉलर, उत्तर कोरिया का आंकड़ा था 0.74 बिलियन डॉलर, इम्पोर्ट गुड्स की बात की जाए तो दक्षिण कोरिया का आंकड़ा था 135.1 बिलियन डॉलर, उत्तर कोरिया का आंकड़ा था 1.31  बिलियन डॉलर, विदेशी कर्ज के मामले में दक्षिण कोरिया का आंकड़ा था 79 बिलियन डॉलर, और उत्तर कोरिया का आंकड़ा था 11.8 बिलियन डॉलर, यह आंकड़ा दक्षिण कोरिया की कुल जीडीपी का 17.5% था तो वहीँ उत्तर कोरिया के मामले में यह आंकड़ा था कुल जीडीपी का 53% था , अब बात लाइफ एक्सपेक्टेंसी की की जाए तो उस समय दक्षिण कोरिया में एवरेज लाइफ एक्सपेक्टेंसी थी 72 साल और उत्तर कोरिया में लाइफ एक्सपेक्टेंसी थी 70.5 साल ये आंकड़ा साल 1995  का है, बच्चों में मौत के आंकड़ों की बात की जाए तो उस समय दक्षिण कोरिया में हर 1000  जन्म के पीछे  10  बच्चों की मौत होती थी, तो वहीँ उत्तर कोरिया में 1000  जन्म के पीछे 26  बच्चों की मौत होती थी यह आंकड़े भी साल 1995  के हैं, अब चलते हैं गांव में रहने वाली जनसख्या की तरफ तो उस दौर में दक्षिण कोरिया में 19 % जनसँख्या गांव में रहती थी तो उत्तर कोरिया में 39 % जनसँख्या गांव में रहती थी यह आंकड़े भी साल 1995  के हैं

इस दौर में वेस्ट जर्मनी की कुल आबादी 62.1  मिलियन थी तो वहीं ईस्ट जर्मनी की कुल आबादी थी 16.6 मिलियन, जीएनपी की बात की जाए तो वेस्ट जर्मनी की थी 1207 बिलियन डॉलर तो ईस्ट जर्मनी की थी 96 बिलियन डॉलर,  अब बात प्रति कैपिटा इनकम  की की जाए तो वेस्ट जर्मनी की 19,283  डॉलर थी तो वही ईस्ट जर्मनी की 5,840  डॉलर थी, साल 1989  के बीच इकोनॉमिक ग्रोथ की बात की जाए तो वेस्ट जर्मनी की 3.0% थी तो वहीँ ईस्ट जर्मनी की -0.8% थी, अब सरकारी एक्सपेंडिचर भी देख ली जिए, इसी एक दौर में जहाँ वेस्ट जर्मनी का गवर्नमेंट एक्सपेंडिचर था 547.7 बिलियन डॉलर तो ईस्ट जर्मनी का था 61.8 बिलियन डॉलर, अब आते हैं डिफेन्स एक्सपेंडिचर की तरफ, इस एक दौर में जहाँ वेस्ट जर्मनी का डिफेन्स एक्सपेंडिचर था 28.5 बिलियन डॉलर तो ईस्ट जर्मनी का था 11.2 बिलियन डॉलर, जहाँ वेस्ट जर्मनी के मामले में डिफेन्स एक्सपेंडिचर कुल जीडीपी का 2.4% था तो वही ईस्ट जर्मनी  के मामले में ये आंकड़ा था 11.2 %, वेस्ट जर्मनी का विदेशी कुल व्यापार था 611.1 बिलियन डॉलर तो वहीँ ईस्ट जर्मनी का था 47.0 बिलियन डॉलर, गुड्स एक्सपोर्ट के मामले में वेस्ट जर्मनी का आंकड़ा था 241.3 बिलियन डॉलर,  ईस्ट जर्मनी का आंकड़ा था 23.7 बिलियन डॉलर, इम्पोर्ट गुड्स की बात की जाए तो वेस्ट जर्मनी का आंकड़ा था 269.8 बिलियन डॉलर, ईस्ट जर्मनी का आंकड़ा था 23.3  बिलियन डॉलर, विदेशी कर्ज के मामले में वेस्ट जर्मनी का आंकड़ा था 106.7 बिलियन डॉलर, और ईस्ट जर्मनी का आंकड़ा था 22 बिलियन डॉलर, यह आंकड़ा वेस्ट जर्मनी की कुल जीडीपी का 8.8% था तो वहीँ ईस्ट जर्मनी के मामले में यह आंकड़ा था कुल जीडीपी का 23% था , अब बात लाइफ एक्सपेक्टेंसी की की जाए तो उस समय वेस्ट जर्मनी  में एवरेज लाइफ एक्सपेक्टेंसी थी 75 साल और ईस्ट जर्मनी में लाइफ एक्सपेक्टेंसी थी 74 साल ये आंकड़ा साल 1989  का है, बच्चों में मौत के आंकड़ों की बात की जाए तो उस समय वेस्ट जर्मनी  में हर 1000  जन्म के पीछे  7.4  बच्चों की मौत होती थी, तो वहीँ ईस्ट जर्मनी में 1000  जन्म के पीछे 7.5  बच्चों की मौत होती थी यह आंकड़े भी साल 1989  के हैं, अब चलते हैं गांव में रहने वाली जनसख्या की तरफ तो उस दौर में वेस्ट जर्मनी में 3.7 % जनसँख्या गांव में रहती थी तो ईस्ट जर्मनी में 10.8 % जनसँख्या गांव में रहती थी यह आंकड़े भी साल 1989  के हैं

इन आंकड़ों से आसानी से यह पता चलता है की जिन देशों ने सोवियत इकनोमिक मॉडल्स(soviet economic models) को अपनाया उनकी परफॉरमेंस उन देशों के मुकाबले काफी ख़राब रही जिन्होंने अन्य इकनोमिक मॉडल्स को अपने अपने देशों में अप्लाई किया

Indian economy data: अब हम भारत में पांच वर्षीय योजनावों की ग्रोथ का विश्लेषण कर लेते हैं, पहली योजना का दौर था साल 1951 से 1956 का इस दौर में ग्रोथ रेट हासिल करने का टारगेट था 2.1% और हासिल किया गया 3.61%, दुसरे प्लान का दौर था 1956 से लेके1961 तक, इस प्लान में ग्रोथ रेट हासिल करने का टारगेट था 4.5% और हासिल हुआ 4.27%, तीसरे प्लान का दौर था 1961 से लेकर 1966 तक, इस प्लान में ग्रोथ रेट हासिल करने का टारगेट था 5.6% और हासिल हुआ 2.84% चौथे प्लान( साल 1969  से 1974), टारगेट था 5.7% और हासिल हुआ 3.30%, पांचवे प्लान(साल 1974 से 1979), टारगेट था 4.4% और हासिल हुआ 4.80%, छठे प्लान(साल 1980 से 1985), टारगेट था 5.2% और हासिल हुआ 5.66%, सातवें प्लान( 1985 से 1990), टारगेट था 5.0% और हासिल हुआ 6.01%, आठवें प्लान(1992 से 1997) इसे इकनोमिक रिफॉर्म्स(economic reforms) का समय भी कहा जाता है, टारगेट था 5.6% और हासिल हुआ 6.78%, याद रखिए पहले प्लान से लेकर सातवें प्लान तक सब कुछ सोवियत इकनोमिक मॉडल प्लानिंग(soviet economic model palnning) के तहत चला था

साल 1980 के दौर में कृषि के छेत्र में इतनी ताकत नहीं बची थी की वो भारत में मौजूद सरप्लस लेबर को पूरा रोजगार दे सके ऐसा इस लिए था क्योकि देश में कृषि छेत्र को जरूरी इन्वेस्टमेंट नहीं मिल रहा था और वहीँ शहरों के ऑर्गनाइज़्ड सेक्टर्स जिनको जरुरी इंवेस्टमेंट्स मिल रही थी वो देश की सरप्लस लेबर को पूरा रोज़गार देने में फेल हो गए

याद रखिए भारत में जो भी पालिसी कृषि मूल्यों को प्रभावित नहीं करेगी वो पालिसी भारत में किसी भी छेत्र के मूल्यों को कण्ट्रोल करने के काबिल नहीं होगी, अब हम कुछ आंकड़े इंग्लिश में दे रहे ताकि समझने में आसानी बनी रहे

अब एक नजर पांच वर्षीय योजनावों के समय में भारत के विदेश व्यापार पर डालते हैं, First plan(1951-1956), Import- Rs.735 cr, Export-Rs.605 cr, Balance of trade: -Rs.130 cr, Second plan(1956-1961), Import-: Rs.973 cr, Export: Rs.606 cr, Balance of trade: -Rs.367 cr ,Third paln(1961-1966), Import-: Rs.1240 cr, Export: Rs.735 cr, Balance of trade: -Rs.487 cr, fourth plan(1966-1971), Import-: Rs.1998 cr, Export: Rs.1238 cr, Balance of trade: -Rs.760 cr, Fifth plan(1971- 76), Import-: Rs.1973 cr, Export: Rs.1810 cr, Balance of trade: -Rs.163 cr, Sixth plan(1976-1981), Import-: Rs.5220 cr, Export: Rs.4479 cr, Balance of trade: -Rs.741 cr, seventh plan(1981-1985), Import-: Rs.14,683 cr, Export: Rs.8967 cr, Balance of trade: -Rs.5716 cr, Eigth plant(1985- 1990), Import-: Rs.25,152 cr, Export: Rs.17,482 cr, Balance of trade: -Rs.7670 cr

Source: Trade and technology Directory of india, gov. of india, 1991

ऊपर दिए गए आंकड़ों से साफ़ है की बहुत कम बार ही भारत का विश्व व्यापर प्लस में रहा हो, इस लिए यह बात सोचने पर मजबूर करती है की इतने सालों तक अगर व्यापर के आंकड़े हमारे पक्ष में नहीं थे तो इतने सालों तक सोवियत पॉलिसीस को जैसे के तैसे क्यों चलाए रखा गया

अब जब कोई कांग्रेस समर्थक कांग्रेस के इतिहास की तारीफ करता मिले और किसी की न सुने तो उसे यह पूछे लेना की अगर सोवियत इकनोमिक मॉडल्स की वजह से ट्रेड बैलेंस लगभग 40 साल तक नेगेटिव रहा है तो आपकी कांग्रेस पार्टी ने 40 साल तक इकनोमिक मॉडल क्यों नहीं बदला

भारत साल 1948 तक विश्व व्यापार में सिर्फ 2% का योगदान देता था, यह आंकड़ा भी लगातार घटता ही रहा है जो साल 1980 में 0.5% तक पहुंच गया था, इसके इलावा साल 1990 में यूनाइटेड नेशंस डेवेलोपमेंट प्रोग्राम की ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट में यह बात सामने आई की भारत युद्ध ग्रस्त देशो जैसे की अफगानिस्तान जैसे देशों के साथ ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में बॉटम लेवल के पास था

प्रति कैपिटा जीएनपी के हिसाब से भारत का स्थान दुनिया में साल 1955 में 105 नंबर पर था जो साल 1989 में खिसक कर 161 हो गया, जीडीपी में मनुफक्चरिंग सेक्टर के योगदान के हिसाब से भारत का स्थान दुनिया में साल 1955 में 15 था तो वहीं साल 1989 में 16 हो गया, सीमेंट के छेत्र में भारत का स्थान दुनिया में साल 1955 में 9 था जो 1989 में 6 हो गया, क्रूड स्टील के छेत्र में साल 1955 में भारत का स्थान 19 था जो साल 1989 में 13 हो गया, मशीन टूल्स के छेत्र में साल 1955 में भारत का स्थान 21 था जो साल 1989 में भी 21 ही रहा, पैसेंजर कार के छेत्र में साल 1955 में भारत का स्थान 13 था जो साल 1989 में खिसक कर 21 हो गया, कमर्शियल वेहिकल के छेत्र में साल 1955 में भारत का स्थान 14 था जो साल 1989 में बढ़ कर 12 हो गया, इलेक्ट्रिसिटी जनरेटेड के छेत्र में साल 1955 में भारत का स्थान 22 था साल 1989 में बढ़ कर 11 हो गया, क्रूड पेट्रोलियम प्रोडक्शन के मामले में साल 1955 में भारत का स्थान 29 था जो साल 1989 में 18 हो गया, कोल् प्रोडक्शन के छेत्र में साल 1955 में भारत का स्थान 4 था जो साल 1989 में खिसक कर 5 हो गया, आयरन ओर के छेत्र में भारत का स्थान साल 1955 में 8 था जो साल 1989 में बढ़ कर 6 हो गया, बॉक्साइट के छेत्र में साल 1955 में भारत का स्थान 15 था जो साल 1989 में बढ़ कर 10 हो गया, मर्चेंट वेसल्स के छेत्र में साल 1955 में भारत का स्थान 21 था जो सुधर कर साल 1989 में 13 हो गया, एक्सपोर्ट्स के छत्र में भारत का स्थान जहाँ साल 1955 में 19 था जो साल 1989 में 47 नंबर तक लुढ़क गया

Source: Based on world development reports, 1990; world bank, 1990

साल 1990-91 का समय था जहाँ एक तरफ खाड़ी युद्ध चल रहा था वहीं दूसरी तरफ भारत आर्थिक तंगी से जूझ रहा था तब भारत ने अमेरिकी एयरफोर्स के जंगी जहाजों जो फिलिपींस से उड़ान भर कर सऊदी अरब की तरफ खाड़ी युद्ध के लिए जाया करते थे को मुंबई, आगरा, चेन्नई, नागपुर आदि में ईंधन भरने की अनुमति दे दी, जिसके बाद अमेरिका का भारत के प्रति नजरिया पूरी तरह से बदल गया इस मदद के बदले में अमेरिका ने इंटरनेशनल मॉनेटरी फण्ड से लगभग 2 बिलियन डॉलर का लोन भारत को बहुत ही रियायती दरों पर दिलवा दिया जिसकी मदद से भारत डेब्ट रीपेमेंट डिफ़ॉल्ट से उबर गया

प्रति वर्ष के हिसाब से भारत के Import और Export ट्रेड से जुड़े आंकड़ों पर नजर मारते हैं/Indian economy by years:

Year: 1949-50, Export: $1016 million, import: $1292 million, trade balance: -$276 million, Year: 1950-51, Export: $1269 million, Import: $1273 million, trade balance: -$4 million, Year: 1951-52, export: $1490 million, Import: $1852 million, trade balance: -$362 million, Year: 1952-53, Export: $1212 million, Import: $1472 million, trade balance: -$260 million, Year: 1953-54, Export: $1114 million, Import: $1279 million, trade balance: -$166 million, Year: 1954-55, Export: $1233 million, Import: $1456 million, trade balance: -$233 million, Year: 1955-56, Export: $1275 million, Import: $1620 million, trade balance: -$345 million, Year: 1956-57, Export: $1259 million, Import: $1750 million, trade balance: -$491 million, Year: 1957-58, Export: $1171 million, Import: $2160 million, trade balance: -$989 million, Year: 1958-59, Export: $1219 million, Import: $1901 million, trade balance: -$682 million, Year: 1959-60, Export: $1343 million, Import: $2016 million, trade balance: -$674 million, Year: 1961-62, Export: $1381 million, Import: $2281 million, trade balance: -$900 million, Year: 1962-63, Export: $1437 million, Import: $2372 million, trade balance: -$935 million, Year: 1963-64, Export: $1659 million, Import: $2558 million, trade balance: -$899 million, Year: 1964-65, Export: $1701 million, Import: $2813 million, trade balance: -$1111 million, Year: 1965-66, Export: $1693 million, Import: $2944 million, trade balance: -$1251 million, Year: 1966-67, Export: $1628 million, Import: $2923 million, trade balance: -$1295 million, Year: 1967-68, Export: $1586 million, Import: $2656 million, trade balance: -$1071 million, Year: 1968-69, Export: $1788 million, Import: $2513 million, trade balance: -$726 million, Year: 1969-70, Export: $1866 million, Import: $2089 million, trade balance: -$223 million, Year: 1970-71, Export: $2031 million, Import: $2162 million, trade balance: -$131 million, Year: 1971-72, Export: $2153 million, Import: $2443 million, trade balance: -$290 million, Year: 1972-73, Export: $2550 million, Import: $2415 million, trade balance: $134 million, Year: 1973-74, Export: $3209 million, Import: $3759 million, trade balance: -$549 million, Year: 1974-75, Export: $4175 million, Import: $5666 million, trade balance: -$1492 million, Year: 1975-76, Export: $4665 million, Import: $6084 million, trade balance: -$1420 million, Year: 1976-77, Export: $5753 million, Import: $5677 million, trade balance: $77 million, Year: 1977-78, Export: $6316 million, Import: $7031 million, trade balance: -$715 million, Year: 1978-79, Export: $6978 million, Import: $8300 million, trade balance: -$1322 million, Year: 1979-80, Export: $7947 million, Import: $11321 million, trade balance: -$3374 million, Year: 1980-81, Export: $7486 million, Import: $15869 million, trade balance: -$7383 million, Year: 1981-82, Export: $8704 million, Import: $15174 million, trade balance: -$6470 million, Year: 1982-83, Export: $9107 million, Import: $14787 million, trade balance: -$5679 million, Year: 1983-84, Export: $9449 million, Import: $15311 million, trade balance: -$5861 million, Year: 1984-85, Export: $9878 million, Import: $14412 million, trade balance: -$4534 million, Year: 1985-86, Export: $8904 million, Import: $16067 million, trade balance: -$7162 million, Year: 1986-87, Export: $9745 million, Import: $15727 million, trade balance: -$5982 million, Year: 1987-88, Export: $12089 million, Import: $17156 million, trade balance: -$5067 million, Year: 1988-89, Export: $13970 million, Import: $19497 million, trade balance: -$5526 million, Year: 1989-90, Export: $16612 million, Import: $21219 million, trade balance: -$4607 million, Year: 1990-91, Export: $18143 million, Import: $24075 million, trade balance: -$5932 million, Year: 1991-92, Export: $17865 million, Import: $19411 million, trade balance: -$1546 million, Year: 1993-94, Export: $22238 million, Import: $23306 million, trade balance: -$1068 million, Year: 1994-95, Export: $26330 million, Import: $28654 million, trade balance: -$2324 million, Year: 1995-96, Export: $31797 million, Import: $36678 million, trade balance: -$4881 million, Year: 1996-97, Export: $33470 million, Import: $39133 million, trade balance: -$5663 million, Year: 1997-98, Export: $35006 million, Import: $41484 million, trade balance: -$6478 million, Year: 1998-99, Export: $33659 million, Import: $41858 million, trade balance: -$8199 million, Year: 1999-2000, Export: $27419 million, Import: $34458 million, trade balance: -$7039 million

प्रति वर्ष ट्रेड आंकड़े भी एहि बताते है की भारत का ट्रेड बैलेंस ज्यादा तर सालों में नेगेटिव ही रहा था, यह आंकड़े भी सोवियत इकनोमिक पॉलिसीस के बुरी तरह से फेल होने की गवाही देते हैं

290 प्रोजेक्ट्स पर एक स्टडी की गई जिसमे पाया गया की, इनमेसे 186 कॉस्ट ओवर(टारगेट कॉस्ट से ज्यादा कॉस्ट),162 प्रोजेक्ट्स टाइम ओवर रन थे, आगे कॉस्ट ओवर रन 50 % तक थी तो टाइम ओवर रन 43 % था, इन आंकड़ों की वजह से देश ने लगभग Rs.20,000 करोड़ ओवर रन में गावं दिए थे, ये हालात साल 1999 तक ठीक नहीं हो सके

साल 1999 के सितम्बर माह तक कुल 201 प्रोजेक्ट्स मेसे 103 अपने समय से पूरे नहीं हो सकने वाली लिस्ट में थे, यह आंकड़ा कुल प्रोजेक्ट्स का 51.2 % बैठा था, यह प्रोजेक्ट्स सेंट्रल सेक्टर प्रजेक्ट्स थे, इनमेसे सबसे ज्यादा लेट होने वाले प्रोजेक्ट्स रेलवे विभाग से थे इनकी गिनती 21 थी, वही पेट्रोलियम विभाग के 19 प्रोजेक्ट्स लेट पूरे हुए थे, बिजली विभाग का आंकड़ा 16 था, सरफेस ट्रांसपोर्ट का आंकड़ा भी 16 था वही 15 प्रोजेक्ट्स कोयला से भी जुड़े थे जो अपने समय से लेट रह गए थे, अगर इन पांच विभागों का आंकड़ा मिला लिया जाये तो यह कुल डिले हुए प्रोजेक्ट्स का 84.5% बनता है,

साल 1999 के सितम्बर माह तक कुल 103 प्रोजेक्ट्स मेसे, 42 प्रोजेक्ट्स ऐसे थे जो 2 से 5 साल तक लेट थे, 28 प्रोजेक्ट्स ऐसे थे जो 1 साल तक लेट थे, 17 प्रोजेक्ट्स 5 से 10 साल तक देरी से थे, 16  प्रोजेक्ट्स 1 से 2 साल तक देरी से थे

अब इनके डिले होने का कारन पर बात की जाए तो लगभग 21 सबसे ज्यादा प्रोजेक्ट्स सिविल वर्क्स की वजह से देरी से थे, वही 16 प्रोजेक्ट्स औजारों की सप्लाई सही न होने की वजह से डिले थे, 14 प्रोजेक्ट्स जमीन की समस्या की वजह से लेट हो गए, फण्ड 13 प्रोजेक्ट्स के समय पर पूरा न होने की वजह बना और 13 प्रोजेक्ट्स ठेका दिए जाने में देरी की वजह से समय पर पूरा नहीं हो सके थे

सितम्बर 1999 में ही डिले हुए प्रोजेक्ट्स पर तै की गई कॉस्ट से पर लगभग 65.7 % कॉस्ट बढ़ गई थी, सेक्टर के हिसाब से देखा जाए तो पावर, एटॉमिक एनर्जी, स्टील, रेलवे विभाग के प्रोजेक्ट्स को इकठा करके देखा जाए तो 84.3 % तक तय कॉस्ट से ज्यादा कॉस्ट बढ़ गई थी, सिर्फ एटॉमिक एनर्जी, फाइनेंस और पावर प्रोजेक्ट्स की कॉस्ट तो तय कॉस्ट से लगभग दोगुनी तक पहुंच गई थी

अब थोड़ा प्राइवेट कम्पनीज और पब्लिक सेक्टर्स की कम्पनीज में तुलना कर ली जाए, स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया vs प्राइवेट सेक्टर की टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड, फ़र्टिलाइज़र कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया vs कोरोमंडल इंटरनेशनल लिमिटेड, हैवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन vs उत्कल मशीनरी लिमिटेड, इन सब मामलों में खास कर आउटपुट के मामले में प्राइवेट सेक्टर की कम्पनीज ही टॉप पर थी जबकि सारे नियम पब्लिक सेक्टर की कम्पनीज ने ही बनाए थे जिनपे प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर दोनों की कम्पनीज को चलना था, रिसर्च एंड डेवलपमेंट, इन्नोवेशंस, पेटेंट्स और सोशल वेलफेयर के मामले में भी प्राइवेट सेक्टर की कम्पनीज की परफॉरमेंस पब्लिक कम्पनीज से बहुत ज्यादा अच्छी थी, इन बातों को देखते हुए तो एहि माना जायेगा की सरकारी अफसर खास कर बेउरोक्रेट्स एंटरप्राइज सँभालने में कामयाब नहीं है लिहाजा अगर इंटरप्राइजेज से बेहतर आउटपुट लेनी है तो पब्लिक कम्पनीज को प्राइवेट के हांथों में देना सबसे अच्छा विकल्प होगा

Role of agriculture in Indian economy: अब थोड़ी बात कर ली जाए एम्प्लॉयमेंट पर, लगभग 80% काम करने वाले लोग(वर्कर्स) ग्रामीण इलाकों में रहते है, जिनमेंसे 63% कृषि से जुड़े हैं, काम करने वाली जनसँख्या मेसे सिर्फ 8% ही ऑर्गेनाइज़्ड  सेक्टर में काम कर रहे हैं, ऑर्गेनाइज़्ड सेक्टर में काम कर रहे कुल लोगों का 55% सर्विस सेक्टर में है और 30% मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में काम कर रहे हैं

इंटरेस्ट रेट बढ़ने और फिक्स्ड डिपाजिट(FD) पर मिलने वाले ब्याज के घटने की वजह से MSME को बहुत नुक्सान हुआ है, इसकी वजह से लगभग 45 सालों की सबसे ज्यादा बेरोजगारी दर को देखा गया है, saving दर में गिरावट और इन्वेस्टमेंट जीडीपी का 28 % दर्ज होना बहुत कम लेवल तक पंहुचा माना जाएगा, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर 5 % से कम की दर से आगे बढ़ रहा है, इसकी सबसे बड़ी वजह demand का कम होना है, इम्पोर्ट की वजह से आने वाला दबाव और सबसे बड़ी बात GST से जुड़ा लम्बा चौड़ा कागजी काम काज इन सब बातों ने व्यापार करना मुश्किल कर दिया है, कृषि भारत में लोगो को रोजगार देना वाला सबसे बड़ा छेत्र है, इसकी उन्नति के लिए FDI का स्वागत करना जरुरी है, कुल 6 सालों में साल 2018-19 से FDI में 1% तक गिरावट दर्ज की गई, जो टेलीकॉम और फार्मा सेक्टर में कुछ कम हुए निवेश की वजह से हुई है, साल 2017-18 में FDI का आंकड़ा $44.85 बिलियन दर्ज किया गया था, विदेशी निवेश में कमी की वजह से देश की बैलेंस ऑफ़ पेमेंट पर बुरा असर पड़ता है और रुपए की वैल्यू भी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कम होगी, उधारण के तौर पर साल 2022 तक Rs.75 प्रति डॉलर हो गया है जो कुछ समय पहले तक Rs.69 प्रति डॉलर था,

PLFS की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले लगभग 3 दशकों में सबसे ज्यादा है, वहीँ CMIE की एक रिपोर्ट जो जनवरी 2019 में रिलीज़ हुई के मुताबिक नोटबंदी के बाद 11 मिलियन लोगो ने साल 2018 में अपनी नौकरी गवां दी, और साल 2017 में आए GST ने लाखों छोटे व्यापारों को धक्का पहुंचाया

जब इटली में नोटबंदी हुई थी तो अगले 10 सालों में 99.15% पैसा वापिस बैंक सिस्टम आ गया था वहीँ फ्रांस में इतने ही समय में 98.77 % पैसा बैंकिंग सिस्टम में आया था पर भारत ने सिर्फ 2 माह में ही 99.3 % पैसा वापिस बैंकिंग सिस्टम में ला दिया था

Agriculture contribution in Indian economy: साल 2004-05 में कृषि, फॉरेस्टरी और मछली पालन ने मिल कर देश की इकॉनमी में 21% का योगदान दिया, साल 2017-18 तक यह शेयर 13.6% तक आ गया, अगर सिर्फ कृषि की ही बात की जाए साल 2004-05 में योगदान था 17.6% पर साल 2016-17 में यह योगदान रह गया 12.2%, इससे साफ़ है की जो लोग कृषि छेत्र में काम कर रहे थे ने बाकी के छेत्रों में काम करने वाले लोगो जितना अच्छा आउटपुट नहीं दिया, साल 2004-05 से साल 2017-18 के बीच कृषि, फॉरेस्टरी और मछली पालन ने मिलकर कुल 3.4% की दर से तर्रकी की और बाकी के छेत्र ने लगभग 7.6% की दर से तर्रकी की, पर सबसे बड़ी बात गांव में मिलने वाली मजदूरी अब भी बहुत कम थी, जिस वजह से कृषि से जुड़े लोगो ने रियल एस्टेट और कंस्ट्रक्शन छेत्र की तरफ अपने कदम बढ़ा लिए, कृषि में मिलने वाली MSP अब भी कृषि से जुडी इकॉनमी को स्थिर करने के काबिल नहीं थी

जमीन को किराए पर लेकर कृषि करने वाले किसानो पर थोड़ी बात कर ली जाए, ऑफिसियल आंकड़ों के मुताबिक लगभग 12% कृषि करने वाले किसान किराए पर जमीन लेकर कृषि करने वाले किसान हैं, आंध्र प्रदेश में 34% कृषि करने वाले एहि लोग हैं, पंजाब में कुल कृषि की जाने वाले आंकड़े में 25% एहि लोग हैं, बिहार में इनका स्थान 21% है, ओडिसा में 17%, पश्चिम बंगाल में 14% और हरयाणा में 15% यह आंकड़ा मिलता है, इतनी बड़ी गिनती में होने के बाद जब कभी कोई कुदरती आपदा आती है और सरकार कोई मुआवजा इन लोगो को देती है तो मुआवजा इन लोगो तक नहीं पहुँचता क्यों की कागजों में ये लोग जमीन के मालिक नहीं होते और मुआवजा जमीन के मालिक तक पहुंच जाता है जो सही मायने में कृषि कर ही नहीं रहा होता है यह वजह कृषि की तर्रकी में बाधा बनती है

कृषि छेत्र के बाद देश के MSME छेत्र की तरफ ध्यान देना बहुत जरुरी रहेगा क्यों की देश की सेमी स्किलड वर्कर्स का 60 % हिस्सा इसी छेत्र से जीविका कमा रहा है, इंटरनेशनल फाइनेंस कारपोरेशन की रिपोर्ट के मुताबिक देश के MSME छेत्र को $370 बिलियन फाइनेंस की जरुरत है पर सप्लाई $139  बिलियन की मिल रही है, यह जो डिमांड और सप्लाई के बीच जो अंतर् है वो देश की कुल जीडीपी का 11% बनता है, कृषि, फाइनेंस और MSME, यह तीन जरुरी छेत्र है जिन्हे देश की इकनोमिक पालिसी में बहुत जरुरी स्थान मिलना चाहिए

देश में जब केंद्र की सरकार ने दुबारा साल 2019 में अपना कार्य भार संभाला तो सरकार ने सबसे पहले कुछ पुराने और बहुत ही ईमानदार बेउरोक्रेट्स को रिटायर कर दिया, जिससे ईमानदार ऑफिसर्स के आत्मविश्वास में कमी आई जिस वजह से आज देश को इकनोमिक क्राइसिस के हालात से लड़ने के लिए अच्छे और अनुभवी ऑफिसर्स की कमी पड़ रही है

अगर जीडीपी को 10% तक बढ़ाना है तो देश में FDI समेत बाकी की इंवेस्टमेंट्स को 29% से बढाकर 38% तक करना ही होगा, साल 2016 से हाउसहोल्ड सेविंग्स घटने शुरू हुए जो साल 2014 में जीडीपी का 34% था वो साल 2018 तक घटकर जीडीपी का 28% रह गया, यह गिरावट नोटेबंदी को सही तरीके से लागु न किया जाने की वजह से हुआ है, पर्सनल इनकम टैक्स को कम करके हाउसहोल्ड सेविंग्स को जीडीपी का 34% लाया जाना चाहिए, बात की जाए नॉन हाउसहोल्ड सेविंग्स की तो यह आज कुल जीडीपी का सिर्फ 5% है, अगर बैंक्स में पड़े फिक्स्ड डिपॉजिट्स पर दिया जाने वाला इंटरेस्ट 9% तक बढ़ा दिया जाए तो यह इंस्टीटूशनल और हाउसहोल्ड सेविंग्स दोनों को फिक्स्ड डिपॉजिट्स में बढ़ा देगा

अगर कुल जीडीपी को 10% से ज्यादा की ग्रोथ देनी है तो हाउसहोल्ड सेविंग्स 34% कुल जीडीपी का होना जरुरी है, इसी तरह नॉन हाउसहोल्ड सेविंग्स 5% कुल जीडीपी का होना जरुरी है और कैपिटल रेश्यो का 3.9% से कम रहना जरुरी है, अगर इन्वेस्टमेंट की रेट 39% हो और प्रोडक्टिविटी( कैपिटल आउटपुट) 3.9 हो तो जब 39 को 3.9 से डिवाइड किया जाएगा तो आंकड़ा 10 बनेगा जो हमें कुल जीडीपी ग्रोथ के लिए चाहिए, इन सब बातों के इलावा अलग अलग छेत्रों में नई प्रोडक्शन टेक्निक को लाया जाना चाहिए, कृषि के छेत्र में MSP को MRP से रिप्लेस करने की जरुरत है

Agriculture in Indian economy: सरकार को चाहिए की एग्रीकल्चर एडवाइजरी सर्विस लागु करे जो अमेरिका की यूनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट ऑफ़ एग्रीकल्चर की तरह किसानो तक नई नई तकनीक को पहुंचने का काम करे, साथ ही सरकार को चाहिए की वो किसानों को कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट 2018 के मॉडल को ऑप्शन के तौर पर लेना शुरू करने के लिए प्रेरित करें

कृषि के लिए पानी की कमी को दूर करने के लिए बड़ी नदियों को कैनल्स के जरिए, अलग अलग छेत्रों तक पहुंचाने का काम सरकार को करना चाहिए, इसके बाद कृषि के काम में इस्तेमाल किए जाने वाले पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स को इको फ्रेंडली प्रोडक्ट्स जैसे की हाइड्रोजन फ्यूल सेल्स से रिप्लेस करने की तरफ कदम बढ़ाना चाहिए, भारत के कोस्टल इलाकों में कृषि में सिचाई के लिए पानी की जरुरत बहुत ज्यादा रहती है जिसे पूरा करने का एक बहुत अच्छा तरीका है समुद्री पानी को देसलिनाशन करके इस्तेमाल में लाने की तरफ कदम बढ़ाने चाहिए, यह तकनीक इजराइल से बहुत आसानी से भारत ले सकता है

सरकार को चाहिए की मॉडल एग्रीकल्चर लैंड लीजिंग एक्ट 2016 को मोटीवेट करे जिससे छोटे और पीछे रह गए किसानो को जिनके पास जमीन की कमी है जमीन लीज पर लेकर कृषि करने में आसानी होगी, किसानो को जमीन लीज पर इस वजह से नहीं मिल पाती क्योकि जमीन के मालिकों को यह डर रहता है की किरायेदार किसान कही उनकी जमीन को न हड़प ले, इस डर को दूर करने का सबसे अच्छा तरीका है जमीन का सरकार के पास पूरा और सही रिकॉर्ड दर्ज होना, सरकार को इस रिकॉर्ड को रखने की प्रक्रिया की तरफ भी कदम बढ़ाने होंगे

कृषि से जुडी रिसर्च पर अभी तक कृषि जीडीपी का 0.3% खर्च होता है इसे बढाकर कमसे कम 1% तक करना चाहिए, बिजली की कमी को दूर करने के लिए ज्यादा बिजली पैदावार की तरफ सोचना होगा जिससे किसानो को बिजली कट्स से राहत मिलेगी, सरकार को चाहिए की नार्थ ईस्ट छेत्रों में हाइड्रोपावर का इस्तेमाल बढ़ाए, अगर भारत को चीन से साल 2050 तक इकॉनमी के छेत्र में आगे निकलना है और अमेरिका को पूरी टक्कर देनी है तो भारत की जीडीपी को अगले लगातार कमसे कम 10 सालों तक 10% से ज्यादा जीडीपी ग्रोथ रेट चाहिए ही होगी, यह काम मुश्किल जरूर है पर असंभव बिलकुल नहीं बस हमें इस दिशा में कदम बढ़ाने होंगे

Note: आर्टिकल में इस्तेमाल ज्यादातर आंकड़े बीजेपी नेता श्री सुब्रमनियन स्वामी से हमारी कुछ साल पहले हुई बात चीत से लिए गए हैं, कुछ आंकड़े श्री स्वामी द्वारा लिखी गई किताब ” RESET regaining india’s economy Legacy” से भी प्रेरित है, पूरे आर्टिकल में कही से भी कोई भी कंटेंट का हिंसा कॉपी करके इस आर्टिकल में नहीं जोड़ा गया है, आर्टिकल के कैप्शंस और फीचर्ड में इस्तेमाल की गई तस्वीरें इंटरनेट से ली गई हैं, इन तस्वीरों का किसी भी तरह से कमर्शियल इस्तेमाल नहीं किया गया है, आर्टिकल को पढ़ने के बाद किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले अलग अलग सोर्सेज से वेरीफाई जरूर करे

 

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