जालंधर(24/03/2023):Democracy मतलब लोकतंत्र जरुरी नहीं की ज्यादा तर जनता की आवाज़ है, बहुत सारे लोग वोट नहीं डालते, ऐसे भी बहुत सारे लोग हैं जो वोट तो डालते हैं पर जिन्हे डालते है वो जीत नहीं पाते, तो कैसे कहा जा सकता है की democracy पूरी जनता की आवाज़ है
Media की शक्ति इसके द्वारा लोगो के विचारों को प्रभावित करने में है, media आलोचक कहते हैं की यह छेत्र नॉलेज आधारित छेत्र नहीं है, यह डिपेंड करती है इवेंट्स और होने वाली घटनाओं से जुडी दोनों तरफ के सूचना सप्लाई पर जैसे प्रेस रिलीज़, प्रेस कांफ्रेंस, इवेंट्स आदि के जरिए
पिछली एक सदी में कई सारी थ्योरी और कई सारे मॉडल्स की खोज हुई है, जो देश अभी डेवेलोप हो रहे हैं उनमे यूरोप में इस्तेमाल किये जाने वाले election advertisement और political marketing का इस्तेमाल बहुत तेजी से होना शुरू हुआ है, खासकर अमेरिका में होने वाले political marketing को बहुत ज्यादा देशों ने कॉपी किया है, क्रिटिक ने इसे चुनाव का अमेरिकीकरण कहा है, कई सारे एनालिस्ट्स ने पाया है की चुनाव के नजदीक के दिनों में होने वाली political marketing का चुनाव के नतीजों पर गहरा प्रभाव रहता है, जो कैंडिडेट जितना ज्यादा अलग अलग मीडिया में दिखाई देगा उसके जीतने के आसार उतना ही ज्यादा रहते है, राजनीतिक दलों द्वारा किसी कैंडिडेट के पक्ष और किसी कैंडिडेट के खिलाफ किये जाने वाले प्रचार का भी गहरा असर पड़ता है
लेफ्ट विचारधारा के लोग सोचते है की media सिर्फ उन्ही समाजिक वर्गों के लिए टूल्स का काम करता है जो पूरे समाज में पहले से प्रभावशाली हैं, पर अमरीकी पोलिटिकल साइंटिस्ट harold dwight lasswell ने साल 1935 में थ्योरी दी जिसको नाम दिया गया the magic bullet theory जिसके मुताबिक media से आने वाले मैसेज का सभी लोगो के साथ एक जैसा सामना हुआ है
साल 1980 के समय में एक और थ्योरी आई जिसका नाम था minimal effect theory जिसके मुताबिक चुनाव से पहले मतदाता के दिमाग में कैंडिडेट्स की पोजीशन को लेकर एक कंफ्यूशन रहती है एही कंफ्यूशन मतदाता को किसी कैंडिडेट के पक्ष तो किसी के खिलाफ मत देने का मन बनाती है, टीवी और प्रेस एक मैसेज जो किसी राजनीतिक पार्टी के पक्ष में हो को जनता के बीच घुमाने का काम करते है जिसकी वजह से ही जनता का विचार उक्त पार्टी के पक्ष में बनता है जो आगे चलकर उक्त पार्टी के लिए मत का रूप लेता है
media में पैसे देकर खरीदी गई विज्ञापन स्पेस तस्वीरों से और न्यूज़ डिपार्टमेंट में लिखे गए आर्टिकल्स के जरिए ऑडियंस के मन पर बहुत गहरा प्रभाव डालने का काम होता हैं, मास मीडिया से जुड़े कई सारे रीसर्चर्स यह बात कहते हैं की media किसी राजनीतिक पार्टी के खिलाफ तो किसी पार्टी के पक्ष में ऑडियंस का मन बनाता है पर इससे भी ज्यादा बड़ा media का जो असर है वो है की media ही ऑडियंस के मन में बैठाता है की दुनिया के बारे कैसा सोचना है, मास मीडिया एनालिस्ट्स कहते है की media ऑडियंस को यह बात नहीं सिखाता की क्या सोचना है media जनता को सिखाता है किसी के बारे कैसे सोचना है, किसी व्यक्ति विशेष या किसी मामले को प्राइम टाइम बुलेटिन या प्राइम स्पेस देकर यह काम किया जाता है
मास मीडिया में गेटकीपिंग का रोल: फिल्म के मामले में डायरेक्टर्स और न्यूज़ मीडिया के मामले में एडिटर्स गेटकीपर का काम करते है इनका काम होता है की जनता के सामने क्या जायेगा, कितना जायेगा और किस शेप में जायेगा, एहि लोग इस बात को निश्चित करते हैं की सूचन कितनी मात्रा में जाएगी, यह लोग जरुरत के हिसाब से सूचना को एक्सपैंड करने का काम भी करते हैं, ये लोग सूचना को रीऑर्गनाइज़ और रीइंटरप्रेट करने का काम भी करते है, गटकीपर्स की वजह से यह बात साफ़ होती है की media ऑब्जेक्टिव न होकर सब्जेक्टिव है
साल 2013 में हुए ऑस्ट्रेलियाई पार्लियामेंट्री चुनाव के दौरान 1496 प्रेस विज्ञप्तियों और 6512 media रिपोर्ट्स के कंटेंट्स पर एक रिसर्च की गई जिसमे पाया गया की अल्ग अल्ग राजनीतिक पार्टियों की जो भी media कवरेज की गई वो न की सिर्फ न्यूज़ फैक्टर्स से प्रभावित थी बल्कि पहले से लगाए जाने वाले पक्षपातपूर्ण अंदाज़ों से भी प्रभावित थीं
जबसे करोङों मोबाइल सेट्स जनता के हांथों में आए हैं तबसे रेडियो के लिए यह एक मौका है की वो आगे बढ़ सके मोबाइल आज बिलकुल उसी तरह रेडियो के काम आ सकतें हैं जैसे कभी ट्रांजिस्टर आया करता था, ट्राई के मुताबिक दिसंबर 2016 तक देश में जहाँ 391.5 मिलियन लोग इंटरनेट इस्तेमाल कर रहे थे जो साल 2017 के दिसंबर में बढ़ कर 445.96 मिलियन तक पहुंच गए, यह बढ़ोतरी सालाना 13.91% के हिसाब से हुई है, इन सब बातों के लिए इंटरनेट का मोबाइल पर इस्तेमाल सबसे बड़ी वजह है, इसी वजह से डिजिटल मीडिया बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है क्योकि ज्यादा से ज्यादा युवा लोग शहरों और गावों में भी इंटरनेट के जरिए जुड़ रहे हैं
आज के समय में चुनाव के दौरान राजनीतिक पार्टिया पेड(विज्ञापन) और फ्री कवरेज(पब्लिक रिलेशन्स) दोनों के रास्ते अपना election advertisement करती हैं, ऐसा माना जाता है की विज्ञापन से ज्यादा एडिटोरियल कवरेज का जनता की सोच पर प्रभाव पड़ता है इसी लिए कई सारे media हाउसेस ने पेड कंटेंट चलाने का प्रिंटेड टैरिफ भी बना रखा है जो एक सही प्रैक्टिस नहीं है जिस वजह से मीडिया क्रिटिक्स इस कदम की आलोचना करते आए हैं
आज के समय में विज्ञापन बेंचने वाली टीम के लोग पत्रकारों का सहारा लेते हैं ताकि वो राजनीतिक लोगो तक अपनी पहुंच बना सके, इसके रास्ते ऐसे टैरिफ बेचे जाते है जिसमे अपने क्लाइंट(राजनीतिक कैंडिडेट) की तारीफ से जुडी कवरेज ही नहीं बल्कि विरोधी कैंडिडेट के खिलाफ कंटेंट चलाने का ऑफर भी रहता है, मीडिया हाउसेस के इस कदम का भी मीडिया क्रिटिक्स लम्बे समय से विरोध करते आए हैं
FICCI -KPMG – indian media and entertainment industry रिपोर्ट 2016 के मुताबिक साल 2015 में इंग्लिश प्रिंट मीडिया की सर्कुलेशन 5.2% तक बढ़ी थी वहीँ हिंदी और वर्नाकुलर प्रिंट पुब्लिकेशन्स 11.7% और 8% तक बढ़ी थी
IRS सर्वे 2017 के मुताबिक साल 2016 में कई सारे चुनाव थे जैसे की असम, गोवा, केरला, मणिपुर, मिजोरम, तमिलनाडु, पुडुचेर्री, और वेस्ट बंगाल, 2017 के शुरू के महीनो में उत्तर प्रदेश का चुनाव भी था इस दौरान सर्वे ने पाया की प्रिंट न्यूज़ पेपर्स की रीडरशिप बहुत ज्यादा बढ़ गई थी ऐसा इस लिए था क्यों की लोग चुनाव से जुडी पल पल की खबर को जानना चाहते थे
IRS की साल 2017 की रिपोर्ट के ही मुताबिक हिंदी और वर्नाकुलर पुब्लिकेशन्स के बढ़ने की एक वजह इन ग्रुप्स के द्वारा नई मार्किट में अपने कदम बढ़ाना और नए एडिशन्स शुरू करना था
IRS सर्वे की 2017 रिपोर्ट के मुताबिक रेडियो के पूरे देश में 20.27 करोड़ सुनने वाले हैं, इसमें सबसे ज्यादा योगदान बड़े शहरों और ग्रामीण इलाकों की जनता का है
सरकार ने अब न्यूज़ सेक्टर में दरवाजे पूरी तरह से खोल दिए है, पहले इस सेक्टर में foreign direct investment सिर्फ 26 % तक ही की जा सकती थी और अब नॉन न्यूज़ सेक्टर में भी 100 % foreign direct investment की जा सकती है जो पहले 74 % तक ही संभव हुआ करती थी
अब थोड़ा बात की जाए भारत में बोलने की आज़ादी और प्रेस स्वतंत्रता की और प्रेस कौंसिल की स्थापना के बारे, वैसे तो भारत में बोलने और लिखने कि पूरी आज़ादी देश का संविधान देता है पर देश के नागरिकों और प्रेस के लिए यह कभी आसान काम नहीं रहा है, प्रेस पर देश में सबसे बड़ा हमला साल 1975 में लगाए गए आपातकाल के दौर में ही माना जाएगा, तब देश की तत्कालीन केंद्र सरकार ने media पर रोक लगाईं थी उस समय के सबसे बोल्ड न्यूज़ पेपर्स जैसे की the statesman और the Indian express ने खाली एडिटोरिअल्स पब्लिश करके सरकार का विरोध किया था
प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया पार्लियामेंट के एक एक्ट के तहत देश में न्यूज़ पेपर्स और न्यूज़ एजेंसीज के स्तर को ऊँचा उठाने और प्रेस फ्रीडम को बचाने के मकसद से बनाया गया था, इसका चेयरमैन सुप्रीम कोर्ट का एक रिटायर जज होता है, प्रेस कौंसिल में 28 सदस्य होते हैं, जिनमेंसे 20 न्यूज़ पेपर इंडस्ट्री से होते हैं, 3 लोक सभा स्पीकर द्वारा नॉमिनेट किये जाते हैं, 2 राज्य सभा के चेयरमैन द्वारा नॉमिनेट किये जाते हैं, 1 साहित्य अकादेमी, 1 बार कौंसिल,1 यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन से नॉमिनेट होते हैं, प्रेस कौंसिल का अपना अलग रेवेनुए सोर्स होता है, यह रजिस्टर्ड न्यूज़ पेपर्स और न्यूज़ एजेंसीज से टैक्स लेता है और साथ ही सरकार से ग्रांट्स भी लेता है जिसके आधार पर अपना काम चलाता है, यह भी एक कड़वा सच है कि बहुत सारी रूलिंग जारी करने के बाद भी देश कि न्यूज़ पेपर इंडस्ट्री प्रेस कौंसिल को कोई ज्यादा महत्व नहीं देती
लिखे हुए शब्दों कि ज्यादा क्रेडिबिलिटी होती है यह बात प्रिंट मीडिया के लिए सबसे बड़ी स्ट्रेंथ है पर अगर न्यूज़ पेपर को पढ़ने के एवरेज टाइम कि बात कि जाए तो यह बहुत ही लो है यह बात न्यूज़ पेपर इंडस्ट्री के लिए सबसे बड़ी वीकनेस साबित होती है,
वहीँ जब रेडियो और टीवी में तुलना कि जाएगी तो टीवी को रेडियो कि तुलना में ज्यादा महत्व मिलेगा,
अब थोड़ा बात कि जाए सिनेमा कि तो यह युवा क्राउड को आकर्षित करने में सफल है, इसपर दिए जाने वाले विज्ञापन लोकल मार्किट के हिसाब से दिए जा सकते हैं जिससे विज्ञापन दाता को ज्यादा फ़ायदा होगा पर इसमें दिए जाने वाले विज्ञापन या तो मूवी शुरू होने से पहले दिखाए जाते है या फिर इंटरवल के दौरान इस दौरान ज्यादा लोग सिनेमा में नहीं बैठे होते यह बात सिनेमा कि सबसे बड़ी वीकनेस साबित होती है
अब बात करते हैं आउटडोर विज्ञापन कि यह मध्यम 24 घंटे दिखाई देने वाला मध्यम है, यह एक मजबूत रिमाइंडर देने का माध्यम है, पर इसपर दिखने के लिए जो फ्लेक्स बनती है वो काफी महंगी होती है, बहुत तेज तूफ़ान कि स्थिति में बोर्ड गिरने के साथ साथ दुर्घटना होने का जोखिम भी बना रहता है अगर इलेक्ट्रॉनिक होर्डिंग्स कि बात करे तो मानसून के समय में शार्ट सर्किट होने का खतरा बना रहता है, इस पर लगने वाले क्रिएटिव ड्राइवर का ध्यान भटका सकते है, इसमें सिर्फ थोड़ा मैसेज ही दिया जा सकता है
अब बात करे डिजिटल मीडिया कि तो इसपर ज्यादा रिसर्च न होने कि वजह से यह मध्यम मीडिया प्लानर्स कि पहली पसंद नहीं है, इस मध्यम के जरिये मैसेज वहाँ तक पहुंच जाता है जहाँ जरुरत नहीं होती, अभी तक भी बैनर एड का उतना असर नहीं हो रहा जितना हो सकता है
जो लोग भारत में टीवी की पहुंच के बारे जानना चाहते है वो इस पैराग्राफ को ध्यान से पढ़ें FICCI-KPMG-indian media एंड entertainment industry report 2016 के मुताबिक़ भारत टीवी के मामले में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मार्किट हैं, साल 2015 तक इसकी पहुंच 175 मिलियन हाउसहोल्ड तक थी, जो 62 % बनता है, अगर केबल एंड सॅटॅलाइट सब्सक्रइबर की बात की जाये तो यह आंकड़ा 160 मिलियन था, इसमें दूरदर्शन फ्री डिश का आंकड़ा नहीं जोड़ा गया है, वहीँ केबल एंड सॅटॅलाइट की पेड़ सब्सक्रइबर लेने वाले लोंगो का आंकड़ा साल 2015 तक 145 मिलियन था जो 83 % बैठता है
अब वो लोग जो रेडियो की पहुंच के बारे जानना चाहते है वो इस पैराग्राफ को जरूर पढ़ें, आल इंडिया रेडियो दुनिया का सबसे बड़ा रेडियो नेटवर्क है देश की आज़ादी के वर्ष 1947 में आल इंडिया रेडियो कुल आबादी का सिर्फ 11 % कवर करती थी, उस समय तक आल इंडिया रेडियो के 6 रेडियो स्टेशंस और 18 ट्रांसमीटर थे, जिसे बाद में बढाकर 233 स्टेशंस और 375 ट्रांसमीटर कर दिया गया जिसकी पहुंच 99.6% जनता तक हो गई और अब ये देश का 91.82% एरिया कवर करने लगा, अब इसका न्यूज़ सर्विस डिपार्टमेंट 647 न्यूज़ बुलेटिन देने लगा जो की 56 घंटों में कुल 90 भाषाओं में चलता था, इसके इलावा 314 न्यूज़ बुलेटिन प्रति घंटे के अंतराल पर दिखाया जाने लगा जो की एफम रेनबो और अन्य 41 आल इंडिया रेडियो स्टेशन पर दिखाया जाने लगा था
अब थोड़ी बात की जाए फोक मीडिया की, यह हर राज्य के हिसाब से बदल जाता है, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में एक फोक मशहूर है जिसका नाम है आल्हा, इसमें 4 लोगों की एक टीम होती है जिनमेंसे 2 गायक और 2 इंस्ट्रूमेंट बजाने वाले होते हैं, यह फोक अलहा भाइयों की बहादुरी की कहानी पर आधारित है
जब राजस्थान पहुंचेंगे तो वहाँ एक फोक है जिसका नाम है भोपा, इसमें एक पति, पत्नी और एक बच्चा होता है, पत्नी और बच्चा गाना गाते हैं और पति इंस्ट्रूमेंट बजाता हैं, इसी तरह राजस्थान में एक अन्य फोक मशहूर हैं जिसका नाम हैं लोंगा एंड मांगणयार, इसमें एक नाटक और गाना होता हैं इस फोक में 4 लोगो की टीम होती हैं, जिसमे से 2 लोग ट्राइबल से होने जरुरी हैं, राजस्थान में ऐसे ही एक अन्य फोक भी मशहूर हैं जिसका नाम हैं पाबो जी की पद, इसमें 2 खम्बे गाड़े जाते हैं और दोनों के बीच एक पर्दा लगाया जाता हैं और एक लैंप जलाया जाता हैं और फिर पर्दें के पीछे से टीम कहानी को गा कर जनता को सुनाती हैं
जब आप ईस्टर्न उत्तर प्रदेश जायेंगे तो वहाँ एक फोक मशहूर हैं जिसका नाम हैं बिरहा, इसमें गाने वालों की 4 से 6 लोगों की एक टीम होती हैं
आंध्र प्रदेश में एक फोक हैं जसिका नाम हैं बुर्रा कथा यह एक किसम की डांस प्रथा हैं, डांडिया और गरबा नाम की एक प्रथा गुजरात में बहुत लोक प्रिय हैं, गुजरात में एक अन्य फोक भी लोकप्रिय हैं जिसको नाम दिया गया हैं भवाई
बात की जाए वेस्ट बंगाल और ओडिशा की तो वहाँ जात्रा नामक एक फोक ड्रामा लोकप्रिय हैं आजकल इसका इस्तेमाल सामाजिक जागृति के लिए भी किया जाने लगा हैं, वेस्ट बंगाल में ही एक अन्य फोक हैं जिसका नाम हैं कब्बिगान यह दो टीमों के बीच म्यूजिकल अरेंजमेंट पर आधारित हैं
जब आप केरला जाएँगे तो वहाँ कथाकली फोक के तौर पर जाना जाता हैं जो एक प्रकार के डांस के रूप में हैं
अब चलते हैं महाराष्ट्र जहाँ एक फोक मशहूर हैं जिसका नाम हैं लवाणी यह एक प्रकार का डांस हैं, जो रोमांटिक गानो पर परफॉर्म किया जाता हैं, यह पेशवा समय से प्रचलित हैं यह 2 आर्टिस्ट्स के द्वारा गाया जाने वाला इतिहासिक और सामाजिक थीम पर आधारित हैं, महाराष्ट्र में ही एक अन्य फोक मशहूर हैं जिसका नाम हैं तमाशा
मध्य प्रदेश में एक फोक चलता हैं जिसको नाम दिया गया हैं नाका, यह एक डांस और ड्रामा फॉर्म हैं इसमें 5 से 6 लोगों की टीम होती हैं
उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा में एक फोक लोकप्रिय हैं जिसे नाम मिला हैं नौटंकी, यह एक डर्मा होता हैं फोक गानों के साथ इसे परफॉर्म करने वालों की गिनती 4 से 10 लोगो की होती हैं
उत्तर भारत में एक फोक काफी मशहूर हैं जिसे पप्पेटरी कहा जाता हैं यह भी एक सांग और डर्मा फॉर्म हैं इसमें पक्षियों और अन्य पाले गए जानवरों को साथ ले कर गाया जाता हैं
मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में एक फोक मशहूर हैं जिसको नाम दिया गाया हैं क़व्वाली का इसमें शेरो शायरी के रूप में गाने गए जाते हैं
ऐसे ही हरियाणा के कुछ इलाकों में एक फोक हैं जिसका नाम हैं रागिनी, इसमें भी कुछ गीत गए जाते हैं
उत्तर प्रदेश में एक अन्य फोक हैं जो काफी लोकप्रिय हैं इसको नाम मिला हैं वसीला इसमें एक पुरुष और कुछ महिला डांसर परफॉर्म करते हैं
हरियाणा और ईस्टर्न पंजाब में एक फोक मशहूर हैं जिसका नाम हैं स्वांग इसमें 5 लोगो की टीम होती हैं जो नगाडा बजा कर जनता का ध्यान खींचती हैं, इसमें गीत होते हैं, संवाद के साथ एक ड्रामा खेला जाता हैं
अब चलते हैं कर्नाटक और तमिल नाडु यहाँ एक फोक हैं जिसे नाम दिया गाया हैं यक्षगाना यह बिलकुल नौटंकी की तरह का ही फोक हैं, अब बात करें तमिल नाडु और केरला की तो वहाँ एक फोक चलता हैं जिसका नाम हैं वेल्लुपात्तु इसमें एक खास किस्म का गाना जो 6 से 8 लोगो द्वारा मिलकर गाया जाता हैं
तो यह ऊपर लिखे गए कुछ बहुत ही मशहूर फोक हैं जिन्हे राजनीतिक पार्टियां चुनाव से पहले एक media के रूप में इस्तेमाल करते हुए अपनी पार्टी का मैसेज जनता तक पहुँचती हैं और ज्यादा से ज्यादा वोट अपने लिए खींचने की कोशिश करती हैं, याद रखिए की फोक एक ऐसा media हैं जो बहुत ही बड़ी गिनती में लोगो को आकर्षित करने में सफल रहता हैं
बहुत सारे जानकार मानते आए हैं की media और राजनीती एक दुसरे के लिए तर्रकी ही लेकर आते हैं वो बात अलग हैं की इन दोनों में कभी ख़ुशी तो कभी गम जैसे रिश्ते बनते बिगड़ते रहते हैं, दोनों को सर्वाइव करने के लिए एक दुसरे की जरुरत हमेशा रहती हैं
दक्षिण भारत के 3 राज्यों के चुनाव को लेकर एक रिसर्च की गई जिसमे देखा गाया की अल्ग राज्य में अल्ग media प्लान ने अल्ग तरीके से काम किया हैं, जहाँ राजनीतिक रैलियों, मीटिंग्स, जाथस, कैंपेन भाषणों ने कर्नाटक की जनता के वोटिंग बेहेवियर पर सबसे ज्यादा असर डाला तो वहीँ केरला में डूर टू डूर कैंपेन का सबसे ज्यादा असर दिखा, वही टीवी चैनल्स पर की जाने वाली डिबेट्स का सबसे ज्यादा असर तमिल नाडु में दिखा, पार्टी न्यूज़ पेपर्स का लगभग एक जैसा असर कर्नाटक और केरला दोनों राज्यों में दिखा, इलेक्शन मैनिफेस्टो का एक जैसा असर केरला और तमिल नाडु में दिखा, पर कर्नाटक में इसका कोई ख़ास असर नहीं दिखा, बात की जाए स्ट्रीट प्लेस की तो इसका कर्नाटक में वोटर्स के बेहवियर्स पर केरला और तमिल नाडु के मुकाबले कहीं ज्यादा अच्छा असर दिखा, वहीँ साफ़ देखा गाया की मास मीडिया को इन 3 स्टेट्स में दूसरी परेफरेंस ही मिल सकी
ऐसे ही एक अन्य रिसर्च में पाया गाया की india में social media में दिए जाने वाले बैनर एड का यूथ वोटर्स खास कर स्टूडेंट्स पर गहरा असर पड़ा इस एड ने स्टूडेंट्स को वोट देने के लिए बेहेवियर बिल्ट करने में बहुत मदद की, इसी रिसर्च में देखा गाया की social media में डिस्कशन किया जाना महिला वोटर्स पर काफी असर डालता हैं खास कर यूथ लड़कियों पर इसका बहुत ज्यादा असर दिखा लड़कों के मुकाबले में, देखा गाया की महिला वोटर्स ने पोलिटिकल कैंडिडेट्स को फेसबुक और ट्विटर पर फॉलो किया, ज्यादा लोग उसी पार्टी को वोट देना चाहते थे जो पार्टी डिजिटल मीडिया पर ज्यादा एक्टिव थी
यह बात एक ओपन सीक्रेट हैं की राजनीतिक पार्टियों को कौन फण्ड देता हैं पर इसपे बहुत ज्यादा डिस्कशन किसी भी media में नहीं देखी जाती ऐसा इस लिए हैं क्योकि चुनाव के दौरान सबसे ज्यादा कमाई media की एड के रूप में होती हैं
आजकल तो मीडिया हाउसेस ने पेड कवरेज का सहारा भी लेना शुरू कर दिया हैं देखा गाया हैं की कई सारे कैंडिडेट्स ने खुले तौर पर पेड कवरेज के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया हैं, ऐसे में पेड कवरेज के समय में मीडिया ऑब्जेक्टिविटी अपने आप पिछली सीट पर चली जाती हैं
ऐसे ही एक बहुत चर्चित लैंडमार्क फैसला दिया इलेक्शन कमीशन ऑफ़ इंडिया ने जब UP के बिसौली से जीती हुई MLA उमलेश यादव को 3 साल के लिए डिसक्वालिफ़ाइड करते हुए सेक्शन 10 -A of the representation of people act 1951 के तहत फैसला सुनाया की उमलेश यादव अपने election campaign के खर्च से जुड़े अकाउंट की सही जानकारी देने में फेल रही, उन पर आरोप था की उन्होंने 2 प्रमुख हिंदी अख़बारों दैनिक जागरण और अमर उजाला को पेड न्यूज़ के लिए पैसे दिए थे, ऐसा तब हुआ जब हारे हुए कैंडिडेट ने प्रेस कौंसिल को इन अख़बारों के खिलाफ एक शिकायत लिखी जिसके ऊपर करवाई करते हुए प्रेस कौंसिल ने इलेक्शन कमीशन को मामला भेजा, इस शिकायत में हारे हुए कैंडिडेट का आरोप था की ये दोनों अख़बार एथिकल वॉयलेशन के गिलटी हैं
ऐसे ही एक अन्य मामला तब सामने आया जब महाराष्ट्र के पूर्व CM अशोक चौहान ने हाई कोर्ट में इलेक्शन कमीशन की शक्ति जो उनके चुनाव खर्च पर जाँच कर रही थी को चुनौती दी थी जिसके फैसले में हाई कोर्ट ने चुनाव कमीशन के पक्ष में फैसला सुनाया था जिसके बाद प्रमुख अख़बार the hindu ने कमेंट करते हुए लिखा था, इलेक्शन कमीशन द्वारा उठाया गाया यह जाँच का कदम बिना किसी पक्षपात और डर के लिया गाया कदम तारीफ का हकदार हैं
चुनाव के समय पेड न्यूज़ की डील media के साथ राजनीतिक पार्टियां, चुनाव लड़ रहे कैंडिडेट्स या फिर इनके एजेंट्स करते हैं, प्रिंट एडिटर B G verghese ने प्रेस कौंसिल को लिखी अपनी एक शिकायत में कहा था की पेड न्यूज़ आज एक एपिडेमिक बन चुकी हैं, उत्तर प्रदेश के आज के मुख्य मंत्री जो तब गोरखपुर से MP थे ने कहा था की उनके छेत्र में हर अख़बार बिकाऊ था
ऐसे ही महाराष्ट्र से कांग्रेस स्पोकसपर्सन हुसैन दलवई ने कहा था की अगर आप पैसे नहीं देंगे तो कुछ नहीं छपेगा,
न्यूज़ चैनल्स के मामले में भी कोई अलग स्टोरी नहीं थी
कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित ने कहा था की एक प्रमुख टीवी चैनल ने उन्हें ऑफर दिया था की जब राहुल गाँधी उनके छेत्र का दौरा करेंगे तो चैनल उनके दौरे की लगभग घंटा भर लाइव कवरेज करेगा जिसके लिए Rs.2,50,000/- लिए जाएँगे
पूर्व इनफार्मेशन एंड ब्रॉडकास्ट मिनिस्टर अरुण जैटली ने पार्लियामेंट के अप्पर हाउस के जीरो ऑवर में बोलते हुए 10 मई 2016 को कहा था की फ्री स्पीच को सरकार सपोर्ट करती हैं पर पेड न्यूज़ को चेक किया जाना बहुत जरुरी हैं
अकाली दाल के कैंडिडेट श्री नरेश गुजराल ने कहा था की चुनाव से जुड़े सर्वे का media में कवरेज करना चुनाव रिजल्ट्स को प्रभावित करने के बराबर हैं, उन्होंने पेड न्यूज़ को ब्लैकमेलिंग का नाम दिया था
पूर्व चीफ इलेक्शन कमिश्नर एस वाई कुरैशी के मुताबिक बिहार चुनाव के दौरान 121 पेड न्यूज़ के मामले सामने आए थे, वहीँ पश्चिम बंगाल, तमिल नाडु, केरला, असम और पुडुचेर्री में हुए चुनावों के दौरान 250 पेड न्यूज़ के मामले सामने आए थे, साल 2012 में हुए यु पी और कुछ अन्य राज्यों में चुनाव के दौरान 766 पेड न्यूज़ की शिकायतें मिली थी, जिनमेंसे 581 शिकायतें ऐसी थी जिनमे प्राइमा फेशिया केस बन रहा था लिहाजा इन 581 मामलों में नोटिस भेजा गया था, इन मामलों मेसे 253 मामलों में पार्टीज़ ने पेड न्यूज़ की बात को माना भी था
अब थोड़ा सेन्सस आंकड़ों पर नजर डालना जरुरी है, साल 2011 के सेंसस रिपोर्ट के मुताबिल भारत की कुल जनसख्या 1.21 बिलियन मेसे 833 मिलियन लोग गांव में रहते है और 377 मिलियन लोग शहर में रहते हैं कुल जनसख्या का 31.2% शहर में रहती है, साल 2001 में 27.8% लोग और साल 1991 में 25.5% लोग शहरों में रहते थे, याद रखिए की 41% से ज्यादा भारतीय जनता हिंदी बोलती है, वही लगभग 10% के करीब ही जनता इंग्लिश बोलती है पर ये वही वर्ग है जो किसी भी पालिसी मेकिंग में एहम रोले निभाता है
याद रखिए की कोई भी डिक्टेटर ज्यादा लम्बे समय के लिए पावर को कंट्रोल करके नहीं चल सकता, लोग ही वो केंद्र है जिसके आस पास सभी डेमोक्रेटिक इंस्टीटूशन्स अपना काम करते है और आगे बढ़ते रहते हैं
यह भी याद रखिये की दुनिया में सबसे ज्यादा वोटर्स india में ही हैं और इनकी गिनती लगभग 800 मिलियन है, अब यह एक अलग बात है की एक media रिपोर्ट जो इलेक्शन कमीशन ऑफ़ इंडिया से मिले इनपुट्स पर आधारित है कहती है की जितनी भी राजनीतिक पार्टियां रजिस्टर्ड है उनमेसे 400 ने कभी कोई चुनाव लड़ा ही नहीं है
याद रहे हिंदुस्तान में 100 करोड़ से ज्यादा मोबाइल फ़ोन हैं, जहाँ डिजिटल मीडिया की बात है देश में सबसे पहले इसका इस्तेमाल आम आदमी पार्टी ने किया साल 2013 और 2015 के दिल्ली चुनाव में इस दौरान आम आदमी पार्टी ने डिजिटल मीडिया का इस्तेमाल न सिर्फ अपना मैसेज जनता तक पहुंचाने के लिए किया इसके साथ ही रोड शो और रैलियों के लिए लोगो को इकठा करने के लिए डिजिटल मीडिया का खूब इस्तेमाल किया, इससे पहले साल 2009 के चुनाव में बीजेपी ने पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी जी की आवाज़ को इस्तेमाल डिजिटल के जरिए करते हुए अपनी पार्टी के लिए वोट जुटाए
marketing शुरू करने से पहले ऑडियंस के ग्रुप्स बनाये जाते हैं, ये ग्रुप डेमोग्राफिक्स और साइकोग्राफिक्स आधार पर बनाये जाते है
डेमोग्राफिक्स: इस में ऑडियंस को लिंग, उम्र, इनकम, ऑक्यूपेशन, शिक्षा, हाउसहोल्ड इनकम आदि के आधार पर अलग ग्रुप्स में बांटा जाता है, यह ग्रुप्स डेमोग्राफिक केटेगरी में आते है
साइकोग्राफिक: इसमें ऑडियंस को लाइफस्टाइल, उनकी ऐटिटूड, विश्वास, वैल्यू सिस्टम, पर्सनालिटी, सामान इस्तेमाल, खरीदारी की वजह आदि के आधार पर अल्ग ग्रुप्स में बांटा जाता है
आपको याद दिलाते चलें की साल 2007 में टाटा टी ने एक कैंपेन शुरू किया था जिसका नाम था जागो रे, इसका मकसद था की देश के युवा वर्ग को चुनाव में जाकर वोट देने के लिए प्रेरित करना, इसके लिए कंपनी ने एक वेबसाइट भी शुरू की थी जो थी www.jaagore.com कंपनी के मुताबिक इसपर लगभग 28 लाख लोगों ने रजिस्ट्रेशन किया था, इनमेसे 6 लाख पहली बार के वोटर थे, कंपनी सोर्सेज के मुताबिक 28 लाख मेसे लगभग वन फोर्थ एक्चुअल वोटर में कन्वर्ट भी हुए थे, इसी तरह से आईडिया मोबाइल ने भी एक कैंपेन चलाया था जिसको नाम दिया था what an idea sir ji
ध्यान रखिये media राजनीतिक पार्टियों और वोटर्स के बीच एक लिंक का काम करती है, मास सोसाइटी थ्योरी की तरफ ध्यान दीजिये, लेखक Stanley J. Baran और Dennis K. Davis कहते हैं की media का जनता के दिमाग पर गहरा असर पड़ता है, media ही लोगों के सोचने के ढंग की रचना करता है, यह लोगो के एक्शन्स को भी बहुत ही प्रभावी ढंग से प्रभावित करता है, न्यूज़ मीडिया ही जनता को बताता है की क्या जरुरी है और क्या जरुरी नहीं है, लोगो के दिमाग में बहुत सारी ऐसी तस्वीरें होती है जिनका असल दुनिया से कोई लेना देना नहीं होता यह तस्वीरें भी media की ही देन होती हैं
बहुत सारे देशों में चुनाव के ओपिनियन पोल को media में तब तक पब्लिश करने की रोक लगाई जाती है जब तक हर कोंस्टीटूएंसेस में चुनाव पूरे न हो जाये ऐसा इस लिए किया जाता है की ओपिनियन पोल के रिजल्ट का बचे हुए चुनाव पर किसी पार्टी के पक्ष और किसी पार्टी के खिलाफ वोटर्स की सोच पर असर न पड़ सके
एक बात यह भी जरुरी है की जनता को पता रहे की आज भी राजनीती के छेत्र में पुरुषों का ही बोल बाला है, साल 1957 में सिर्फ 3% महिला कैंडिडेट ही मैदान में थी जिनमेंसे सिर्फ 4.5% कैंडिडेट जीत कर पार्लियामेंट पहुंच सकी थी, साल 2014 के चुनाव में यह आंकड़ा थोड़ा बढ़ा जरूर पर बहुत ज्यादा नहीं, इस बार 8.1% कैंडिडेट महिलाएं थी जिनमेंसे 11.2% जीत कर पार्लियामेंट पहुंच सकीं, आज भी पार्लियामेंट में महिलाओं की गिनती ज्यादा नहीं है
अप्पर मिडिल और मिडिल क्लास समाज से आने वाले वोटर्स ने साल 2009 के चुनाव में काफी योगदान दिया जिससे भारत के शहरीकरण की रफ़्तार का पता चलता है साथही इस बात की भी झलक मिलती है की मिडिल क्लास ने चुनाव प्रक्रिया पर मजबूत पकड़ बना ली है, सोलहवीं पार्लियामेंट्री चुनाव में बीजेपी को मिले कुल वोट्स मेसे 52% अकेले 2 टॉप क्लास समाज ग्रुप्स से आए थे
साल 2017 में हुए चुनाव में देखा गया की जिन छेत्रों में 25% से ज्यादा मुस्लिम वोटर्स थे उन छेत्रों में बीजेपी ने 52 सीट जीती, वही कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के गठबन्धन ने 28 सीट और बहुजन समाज पार्टी ने सिर्फ 3 सीट जीती, इस आंकड़े पर बीजेपी सरकार में मंत्री रहे M.J.Akbar ने कहा की मुस्लिम समाज ने बीजेपी को वोट इस लिए दिया क्योकि उन्होंने फैक्ट्स पर भरोसा करके वोट दिए, बीजेपी की जीत के लिए अच्छे नंबर मोदी के इलेक्शन कैंपेन को देने होंगे, मोदी का कैंपेन अथक और लगातार था वहीँ कांग्रेस का कैंपेन सुस्ती भरा था
नेहरू जब देश के पहले चुने हुए प्रधान मंत्री बने थे तब उन्होंने सभी विरोधी दलों को हराते हुए कास्ट हुए कुल वोट्स मेसे 75.99% वोट्स हासिल किए थे जिनकी गिनती थी 47,665,951
साल 1977 के चुनाव में कांग्रेस को मुँह की खानी पड़ी थी तब प्रधानमंत्री रही इंद्रा गाँधी अपनी सीट हार गई थी, उनकी जमानत तक जब्त हो गई थी ऐसा इमरजेंसी लगाए जाने से नाराज जनता का गुस्सा कांग्रेस के खिलाफ वोटिंग में उतरा था, इमरजेंसी में इंद्रा गाँधी ने लोगो के सिविल अधिकारों को बाधित किया था जिसका जनता में बहुत गुस्सा था
अब बात होगी कुछ ऐसे इलेक्शन कैंपेन और इलेक्शन स्लोगन्स की जो लम्बे समय तक याद किए जाते रहे, रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ” इंडिया आफ्टर गाँधी” में लिखा है की उन्होंने देखा की तब के कलकत्ता(आज के कोलकाता) में एक गाय देखि जिस पर पेंट किया हुआ था ” वोट फॉर कांग्रेस”
साल 1967 के चुनाव में एक इलेक्शन स्लोगन चला था” जन संघ को वोट दो, बीड़ी पीना छोड़ दो, बीड़ी में तम्बाकू है, कांग्रेस वाला डांकू है
ऐसे ही एक अन्य स्लोगन जन संघ ने इंद्रा गाँधी के खिलाफ शुरू किया था ” यह देखो इंद्रा का खेल, खा गई शक्कर, पी गई तेल”
ऐसे ही स्लोगन इंद्रा गाँधी ने भी शुरू किया” वो कहते है इंद्रा हटाओ, मैं कहती हु गरीबी हटाओ”
जब जून 1975 में इंद्रा गाँधी ने इमरजेंसी लगा दी तो सामाजिक नेता जय प्रकाश नारायण ने स्लोगन दिया ” इंद्रा हटाओ, देश बचाओ”
साल 1977 में जब इंद्रा गाँधी चुनाव हार गई तो उन्होंने साल 1978 में आंध्र प्रदेश के चिकमगलूर से चुनाव लड़ा जहाँ उस समय के मशहूर कवी श्रीकांत वर्मा ने इंद्रा के लिए स्लोगन लिखा ” एक शेरनी, सौ लंगूर, चिकमगलूर भाई, चिकमगलूर”
साल 1984 में हुए सिख विरोधी दंगो के समय अटल जी बीजेपी प्रेजिडेंट थे दंगो के बाद अटल जी ने पार्टी के नेताओं से कहा था की पीड़ित लोगो की जो संभव हो वो मदद की जाए, मदन लाल खुराना और विजय कुमार मल्होत्रा लोगो के घर घर, कॉलोनी कॉलोनी गए और जो भी हो सका लोगो की मदद की फिर भी जनता की सहानुभूति कांग्रेस के पक्ष में ही रही और 1984 में हुए लोक सभा चुनाव में बीजेपी को बस 2 सीट ही मिली
इलेक्शन हुए दिसंबर1984 में मतलब इंद्रा गाँधी की हत्या के बाद तब एक स्लोगन इंद्रा के पक्ष में चला था ” जब तक सूरज चाँद रहेगा, इंद्रा तेरा नाम रहेगा”
साल 1996 के चुनाव के दौरान कांग्रेस का पूरा चुनावी कैंपेन विदेश नीति को मिली सफलताओं और कम गिनती वर्ग को दिए जाने वाली ख़ास सुविधाओं पर आधारित रहा, कांग्रेस ने अपनी धर्म निरपेक्ष छवि को कैंपेन के केंद्र में रखा, कांग्रेस ने स्लोगन जारी किया ” न जात पे न पात पे मुहर लगेगी हाथ पे”
वही इसके विरोधी दाल बीजेपी ने स्लोगन जारी किया ” बारी बारी सबकि बारी, अबकी बारी अटल विहारी”
फिर आया साल 1999 का चुनाव जब कांग्रेस के घटक दल के एक नेता शरद पवार ने कांग्रेस का दामन छोड़ अपनी नई पार्टी नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी बनाने निकल पड़े, इसकी सबसे बड़ी वजह थी की कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री पद की दावेदार सोनिया गाँधी विदेशी थीं, इस साल बीजेपी का सारा कैंपेन अटल विहारी और कांग्रेस का पूरा कैंपेन सोनिया गाँधी के इर्द गिर्द ही था, जहाँ कारगिल में मिली सफलता का बीजेपी को फ़ायदा मिल रहा था तो वहीँ कांग्रेस का पूरा कैंपेन पिछले 3 सालों की सरकार के काम काज के बखान पर टिका, बीजेपी ने स्लोगन लाया ” जाँचा, परखा, खरा”
साल 2004 के चुनाव में कांग्रेस ने सोनिया गाँधी के पक्ष में स्लोगन लाया “सोनिया नहीं ये आंधी है, दूसरीं इंद्रा गाँधी है”, इसके बाद कांग्रेस ने सोनिया गाँधी को विदेशी कहे जाने के सवाल के जवाब में स्लोगन लाया की “जन जन की एहि पुकार सोनिया गाँधी बहु हमार” इसके इलावा कांग्रेस ने एक और पॉजिटिव स्लोगन चलाया ” मेरा भारत मेरी शान, एहि है कांग्रेस का अरमान”
कांग्रेस ने राजीव गाँधी को बोफोर्स मामले में मिली क्लीन चिट को कैंपेन में इस्तेमाल किया, रोड शो, रैलियों में राजीव गाँधी और सोनिया गाँधी की तस्वीरों और वीडियो स्लॉट को इस्तेमाल किया गया
साल 1999 और साल 2004 में हुए चुनावों में कांग्रेस और बीजेपी दोनों के वोट शेयर पर कोई ज्यादा असर नहीं पड़ा था पर साल 2004 में कांग्रेस ने 31 सीट ज्यादा हासिल की थीं ऐसा इस लिए हुआ था क्योकि कांग्रेस ने वेस्टमिनिस्टर इलेक्टोरल सिस्टम का इस्तेमाल किया था
साल 2009 के चुनावी कैंपेन में कांग्रेस ने slum dog millionaire फिल्म से एक डायलॉग ” जय हो” को इस्तेमाल किया साथ ही कॉमन वेल्थ खेलों में मिली सफलता को चुनावी कैंपेन में इस्तेमाल कर लिए जिसपे इलेक्शन कमीशन ने कांग्रेस को नोटिस भी भेजा था
इसके जवाब में बीजेपी ने स्लोगन चलाया ” कुशल नेता” इसके इलावा बीजेपी ने आतंकवाद के खिलाफ लाये कानून पोटा को अपने चुनावी कैंपेन में इस्तेमाल किया, बीजेपी ने लगातार मैसेज और वॉइस ओवर के जरिए अटल विहारी की आवाज़ को कैंपेन में खूब इस्तेमाल किया, लोगो को फ़ोन आता ‘ सामने से वॉइस ओवर में अटल जी की आवाज़ में बोला जाता ” नमस्कार मैं अटल विहारी वाजपई बोल रहा हु”
फिर साल 2014 का चुनाव आया तो मोदी ने अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के स्टाइल को अपनाया और ब्रिटिश स्टाइल वेस्टमिनिस्टर डेमोक्रेसी को बदल दिया, इस बार मोदी ने स्लोगन इस्तेमाल किया ” अबकी बार मोदी सरकार”
साल 1999 के चुनाव से पहले इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन्स ने एक स्टडी की जिसमे सबसे लोक प्रिय नेता की पहचान करने की कोशिस की गई, इस स्टडी में अटल विहारी, सोनिया गाँधी, सुषमा स्वराज, मायावती, ज्योति बासु, चंद्र बाबू नायडू, जयललिता, ममता बनर्जी को कुछ अन्य नेताओं के साथ लिस्ट में रखा गया, स्टडी के लिए 585 युवा लोगो को लिया गया जिनमेंसे पहली बार के और दूसरी बार के वोटर्स शामिल थे इनमेसे लड़के और लड़किया दोनों थे, 585 मेसे 185 ऐसे लोग थे जो दूसरी या तीसरी बार वोट देने जा रहे थे, 348 ऐसे लोग थे जो या तो पहली बार वोट देने वाले थे या फिर जो साल 1998 में वोट देने से चूक गए थे, 438 लोग ऐसे थे जिनकी उम्र 18 -24 साल थीं, 89 वोटर्स की उम्र 24 साल से ज्यादा थीं, यह स्टडी हुई तो दिल्ली में पर पूरे देश की कई सारे इंस्टीटूट्स और यूनिवर्सिटीज को शामिल किया गया था
इस स्टडी में ईमानदारी, लिबरल विचार, सही बात कहने, अनुभव के आधार पर सबसे ज्यादा अंक अटल विहारी को मिले थे, अनुभव हीनता के लिए सबसे ज्यादा अंक सोनिया गाँधी को मिले, स्टडी में हिस्सा लेने वाले 35 % लोगों ने कहा की सोनिया गाँधी अपनी बात लोंगो तक पंहुचा पाने में सफल नहीं है, पर जब बात आई ड्रेस सेंस की तो सोनिया गाँधी को इस मामले में जीत हासिल हुई, 65 % हिस्सा लेने वालों ने कहा की सोनिया गाँधी देखने में एक अच्छी नेता लगती हैं, 17 % लोगो को सोनिया गाँधी में करिश्मा कर दिखाने की क़ाबलियत भी दिखी
सफल marketing सिर्फ 2 चीज़ों पर निर्भर करती है पहली की अपने कस्टमर को सुनो और फिर अपने कस्टमर को सहानुभूति दिखाओ बाकी काम आसान हो जायेगा, एहि मोदी ने भी किया, कम ही सही पर कई बार ऐसा हुआ है की प्रोडक्ट अपने बनाने वाले से आगे निकल जाये और लोग बनाने वाले से ज्यादा प्रोडक्ट को जाने, जैसे की मैगी ने नेस्ले के साथ किया, लाइफबॉय साबुन ने यूनिलीवर जिसने उसे बनाया से खुदको बड़ा बना दिया, ऐसा ही मोदी ने बीजेपी के साथ कर दिखाया
बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के सिर्फ 6 महीने बाद 6 फरवरी 2013 को मोदी को दिल्ली के कॉलेज में जाकर भाषण देना था मोदी ने चुना श्री राम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स, जबकि दिल्ली में हिन्दू कॉलेज और संत स्टीफेन कॉलेज जैसे बड़े विकल्प मौजूद थे पर मोदी ने श्री राम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स को चुना क्योकि मोदी को यह बात अच्छे से पता थीं की कॉमर्स स्टूडेंट उनके गुजरात मॉडल को किसी भी अन्य छेत्र के स्टूडेंट्स से ज्यादा बेहतर ढंग से समझ सकते है और ये लोग ही हैं जो गुजरात मॉडल को समझ कर आसान करके और लोगो को समझा सकते है
मोदी ने गुजरात मॉडल को एक्सप्लेन करने में गवर्नेंस, रोड, बिजली, औरतों के लिए सुरक्षा, शांति, इंडस्ट्री और शिक्षा के छेत्र में हुई गुजरात की तर्रकी को जनता के सामने रखा जिसे सपोर्ट करने के लिए मजबूत आंकड़ों का सहारा लिया
चुनाव प्रचार के दौरान मोदी को निकनेम मिला नमो, जो संस्कृत से आया शब्द है जो हिन्दू समाज को अपनी तरफ खींचने में सफल भी रहा वहीँ राहुल गाँधी को निकनेम मिला रागा जो ज्यादा लोगो को प्रभावित नहीं कर सका
अब बात मजाक में मिले नाम की करें तो राहुल गाँधी को नाम मिला पप्पू और मोदी को कांग्रेस से जुड़े लोगो ने फेंकू कहना शुरू किया यहाँ भी पप्पू शब्द ने राहुल गाँधी की छवि को ज्यादा ख़राब किया और फेंकू शब्द का मोदी की छवि पर ज्यादा असर नहीं हुआ
जानकार कहते हैं की मोदी की छवि में सबसे ज्यादा उछाल कॉर्पोरेट लीडर्स की सपोर्ट मिलने से आया
किसी भी marketing में 4 Pc होते हैं, product , price , promotion , place , पर जब political marketing की बात आती है तो यहां 4 Cs आते हैं cause , constituancy , comparative advertising , celebrity endorsement
इनसबमेसे कम्पेरेटिव एडवरटाइजिंग पर ध्यान देने की सबसे ज्यादा जरुरत होगी, कई अल्ग अल्ग स्टडीज में देखा गया है की जब एक कैंडिडेट दुसरे कैंडिडेट पर जुबानी हमला बोलता है तो जिसपर यह हमला किया जा रहा है उसके खिलाफ काफी नेगेटिव बातें जनता के सामने रखी जाती है जिससे हमला झेल रहे कैंडिडेट की इमेज पर बुरा असर पड़ता है ऐसा करते समय हमला करने वाले कैंडिडेट पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता ऐसा इस लिए होता है क्योकि चुनाव के समय वोटर्स को ऐसा लगता है नेगेटिव एडवरटाइजिंग से उन्हें ज्यादा सूचना मिलती है जिससे वोट देने को लेकर फैसला करने में बहुत आसानी हो जाती है
कैडबरी, पेप्सी और कोका कोला इनके दामन पर गहरे दाग लगे पर फिर भी ये ब्रांड्स इन दागों को धोने में कामयाब रहे, कैडबरी पर आरोप था की इसके प्रोडक्ट्स में कीड़े निकले थे और कोका कोला और पेप्सी पर अपने ड्रिंक्स में पेस्टिसाइड्स मिलाने के आरोप लगे थे, ऐसे हाल में इल्जाम झेल रहे ब्रांड्स को इल्जामों पर ज्यादा बात नहीं करनी होती, अगर कभी बात करनी भी पड़ जाये तो जितना हो सके कम बात करे, क्योकि जितना ज्यादा इल्ज़ाम पर चर्चा होगी उतनी ज्यादा लम्बे समय के लिए बुरे अनुभव कंस्यूमर्स के दिमाग में रहेंगे और जितनी कम चर्चा होगी उतनी जल्दी कंस्यूमर्स बुरे अनुभव को भूल जायेंगे, बिलकुल ऐसा ही मोदी और बीजेपी ने गुजरात दंगो को लेकर लगे इल्ज़ामों पर किया जिससे लोग जल्दी इन इल्जामों को भूल गए, और परिणाम आपके सामने है
कांग्रेस के इलेक्शन कैंपेन की बात की जाये तो कांग्रेस इसका सही फ़ायदा नहीं उठा सकी, सच तो यह है की कांग्रेस जो दर्जनों स्कीम्स जनता के लिए लाइ थी जैसे की गावों के लोगों के लिए रोज़गार देना, सेहत मिशन, भोजन सुरक्षा आदि इनमेसे किसी के बारे कांग्रेस जनता के सामने सही ढंग से अपनी उपलब्धि नहीं दिखा सकी, भारत निर्माण कैंपेन में जनता के हजारों करोड़ रुपये झोक दिए गए और परिणाम हुआ NDA के कैंपेन शाइनिंग इंडिया जैसा
मोदी का सबसे पहली कम्युनिकेशन स्ट्रेटेजी थी अमेरिका के बड़े पब्लिकेशन्स जैसे की times , the economist , new york times , the wall street journal , जैसे बड़े मीडिया हाउसेस में अपनी छवि दुनिया के सामने सही दिखाना जिससे देश के media पर खूब प्रेशर पड़ा की वो मोदी की ज्यादा से ज्यादा कवरेज करे
मोदी की चुनावी कैंपेन को 3 लेयर में बांटा गया था पहली लेयर में मोदी खुद और उनके वॉलेंटेर्स देश से सीधे बात करने की कोशिस करते, दूसरी लेयर में मोदी की टीम के बड़े नेता लोगो से खास कर जरुरी और संवेदनशील ग्रुप्स से मीटिंग करने और जुड़े रहने का काम करते, तीसरी लेयर में आरएसएस और पार्टी के अन्य वर्कर रहते जो दूर तक मैसेज पहुंचाने का काम करते
Election campaign के दौरान मोदी की टीम को पता चला की यु पी और बिहार में लगभग 30,000 ऐसे गांव हैं जहा न टीवी है, न रेडियो पंहुचा है न ही अखबार जाते हैं, ऐसे गावों के लिए स्पेशल वैन भेजी गई जिन पर मोदी का प्रचार छापा रहता या ऑडियो या फिर वीडियो प्रचार चलता था, जहाँ यह सब भी संभव नहीं था वहाँ लोगो के घर घर जाके वॉलेंटेर्स ने पार्टी और मोदी का मैसेज पहुचाया, अल्ग अल्ग मीडिया के जरिये मोदी ने अपना चुनावी मैसेज लगभग 12 crore ऐसे वोटर्स तक पहुँचाया जो पहली बार वोट देने जा रहे थे
अब थोड़ा पीछे चलते है साल था 2007 जब मोदी ने यूट्यूब को पहले social media प्लेटफार्म के तौर पर ज्वाइन किया, इसके बाद शुरू हुई थी फेसबुक, ट्विटर की यात्रा, मोदी देश के पहले राजनीती से जुड़े इंसान थे जिन्होंने गूगल हैंगऑउट इस्तेमाल करना शुरू किया था
मोदी पहले ऐसे सेलिब्रिटी नेता थे जिन्होंने अपनी पार्टी के लोगों को ट्विटर पर फॉलो करना शुरू किया, दुसरे देशों के नेताओं को फॉलो किया, कुछ सेलिब्रिटीज को फॉलो करना शुरू किया, यहाँ तक की अपने कुछ फॉलोवर और चाहने वाले आम लोगों को भी फॉलो बैक किया, ऐसा करके मोदी ने इंटरनेट पर अपने लिए वकालत करने वाले लोगों की एक फ़ौज खाड़ी कर दी
मोदी की टीम ने यु पी की 80 सीटों पर वेब पेज बनाये जैसे की नमो लखनऊ, नमो भगपत आदि इन वेब पेज पर लोकल समस्याओं पर चर्चा की जाती थी, जो लोग उस समय यूट्यूब पर मोदी की स्पीच सुन पाने में सक्षम नहीं थे उन्हें वॉयस मैसेज के जरिये स्पीच भेजी जाती थी
दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने अपना कैंपेन टीवी और प्रिंट मीडिया से हटाकर रेडियो की तरफ लगाया,ऐसा करने में केजरीवाल ने 500 करोड़ रुपये से ज्यादा का खर्च किया, इस स्ट्रेटेजी के तहत केजरीवाल ने एक रेडियो ऑडियो बनवाया जो 76 सेकण्ड्स का था इसमें फोकस था “जो कहा वो किया” और पार्टी के कामों का बखान किया गया, इस ऑडियो को विभिन्न रेडियो स्टेशन पर चलाया जाता था
एक बार जब केजरीवाल ने धरना देने की धमकी दी तब बीजेपी ने एड बनाया की अगर आपने इनकी बात न सुनी तो ये रिपब्लिक डे फंक्शन को ख़राब कर देंगे, ऐसे ही एक बार केजरीवाल ने एड चलाया की उनकी सरकार भ्रष्ट अफसरों को नहीं छोड़ने वाली और उनकी सरकार ने 120 भ्रष्ट अफसरों को ससपेंड किया है और 35 को गिरफ्तार किया है, तो जवाब में बीजेपी ने यूनिपोल्स पर विज्ञापन लगा दिया और विज्ञापन में कहा की श्रीमान झूठे इन अफसरों के नाम तो बताव
SOURCES: www.ecanvasser.com, www.lawinsider.com, sproutsocial.com, hls.harvard.edu, www.electoralcommission.org.uk, hustle.com, www.capterra.com
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